VMOU PS-06 Paper BA 3rd Year ; vmou exam paper 2024
नमस्कार दोस्तों इस पोस्ट में VMOU BA Final Year के लिए राजनीति विज्ञान ( PS-06 , Contemporary International Relations ) का पेपर उत्तर सहित दे रखा हैं जो जो महत्वपूर्ण प्रश्न हैं जो परीक्षा में आएंगे उन सभी को शामिल किया गया है आगे इसमे पेपर के खंड वाइज़ प्रश्न दे रखे हैं जिस भी प्रश्नों का उत्तर देखना हैं उस पर Click करे –
Section-A
प्रश्न-1. दक्षिण-दक्षिण संवाद से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:- दक्षिण-दक्षिण सहयोग से तात्पर्य विकासशील देशों में आपसी सहयोग को बढ़ावा देकर आर्थिक व तकनीकी क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना है। जो इन देशों के विकास को एक नया रूप प्रदान करेगा। नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना के लिये विकसित और विकासशील देशों में उत्तर-दक्षिण संवाद की शुरुआत हुई।
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प्रश्न-2. निःशस्त्रीकरण का क्या अर्थ है ?
उत्तर:- निःशस्त्रीकरण का अर्थ है – विनाशकारी हथियारों/अस्त्रों-शस्त्रों के उत्पादन पर रोक लगना तथा उपलब्ध विनाशकारी हथियारों को नष्ट करना।
प्रश्न-3. भारत ने पहला परमाणु परीक्षण कब किया ?
उत्तर:- 18 मई 1974 को भारत ने पोखरण में अपना पहला परमाणु परीक्षण किया, जिसका कोड नाम ऑपरेशन स्माइलिंग बुद्धा था।
प्रश्न-4. सीटीबीटी का पूरा नाम लिखिए।
उत्तर:- व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि
प्रश्न-5. भारतीय विदेश नीति के कोई चार मूल सिद्धान्त बताइए।
उत्तर:- ये पांच सिद्धांत हैं- (i)दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता के लिए पारस्परिक सम्मान, (ii)परस्पर गैर आक्रामकता, (iii)परस्पर गैर हस्तक्षेप, (iv)समानता और पारस्परिक लाभ, और (v)शांतिपूर्ण सह अस्तित्व।
प्रश्न-6. ‘सार्क’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:- सार्क दक्षिण एशिया के सात देशों का संगठन है जिसका पूरा नाम है दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन. ‘सार्क’ संगठन के अंग्रेज़ी नाम – साउथ एशियन एसोसिएशन फॉर रीजनल कोऑपरेशन – का छोटा रूप है. आठ दिसंबर 1985 को बने इस संगठन का उद्देश्य दक्षिण एशिया में आपसी सहयोग से शांति और प्रगति हासिल करना है
प्रश्न-7. स्वेज नहर की समस्या क्या थी ?
उत्तर:- सन 1956 में पहले इज़राइल तथा बाद में ब्रिटेन और फ्रांस द्वारा मिस्र पर किया गया आक्रमण स्वेज संकट कहलाता है। यह आक्रमण स्वेज नहर पर पश्चिमी देशों का नियंत्रण पुनः स्थापित करने तथा मिस्र के राष्ट्रपति नासिर को सत्ता से हटाने के उद्देश्य से किया गया था।
प्रश्न-8. बहु-ध्रुवीय विश्व से आपका क्या आशय है ?
उत्तर:- बहु-ध्रुवीय विश्व एक ऐसी वैश्विक व्यवस्था है जिसमें शक्ति एक या दो देशों के हाथों में केंद्रित नहीं होती, बल्कि कई देशों के बीच बंटी होती है। इसमें कई देशों के पास राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य शक्ति होती है जो विश्व मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
बहु-ध्रुवीय विश्व की प्रमुख विशेषताएं:
- शक्ति का विकेंद्रीकरण: शक्ति एक या दो देशों के बजाय कई देशों के बीच बंटी होती है।
- अनेक शक्ति केंद्र: विश्व में कई शक्ति केंद्र होते हैं जो वैश्विक मामलों में प्रभाव डालते हैं।
- सहयोग और प्रतिस्पर्धा: देशों के बीच सहयोग और प्रतिस्पर्धा दोनों होती है।
- गतिशीलता: शक्ति का संतुलन लगातार बदलता रहता है।
बहु-ध्रुवीय विश्व के लाभ:
- स्थिरता: यह विश्व को अधिक स्थिर बना सकता है क्योंकि कोई भी एक देश विश्व व्यवस्था को अपने अनुसार नहीं बदल सकता।
- विकास: यह विकासशील देशों को उभरने और वैश्विक मामलों में अधिक सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर प्रदान करता है।
- विविधता: यह विश्व को अधिक विविध बनाता है और विभिन्न दृष्टिकोणों को प्रतिबिंबित करता है।
बहु-ध्रुवीय विश्व की चुनौतियाँ:
- अस्थिरता: शक्ति के संतुलन में लगातार बदलाव से अस्थिरता पैदा हो सकती है।
- संघर्ष: विभिन्न शक्ति केंद्रों के बीच संघर्ष होने की संभावना रहती है।
- अनिश्चितता: यह भविष्य के बारे में अनिश्चितता पैदा कर सकता है।
निष्कर्ष:
बहु-ध्रुवीय विश्व एक जटिल और गतिशील व्यवस्था है। इसमें कई लाभ और चुनौतियाँ हैं। यह विश्व के भविष्य को आकार देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
प्रश्न-9. दितांत को समझाइए ?
उत्तर:- दितान्त फ्रेंच भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है – तनाव में शिथिलता (Relaxation of Tensions)। अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों में प्रायः इसका प्रयोग अमेरिका और सोवियत संघ के बीच द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद व्याप्त तनाव में कमी और उनमें बढ़ने वाली सहयोग व शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व की भावना के लिए किया जाता है।
प्रश्न-10. भारतीय विदेश नीति की दो विशेषताएँ लिखिए ?
उत्तर:- 1) भारत की विदेश नीति असंलग्नता या गुटनिरपेक्षता की नीति है । (2) भारत की विदेश नीति राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता देती है । ( 3 ) भारत की विदेश नीति सोवियत संघ तथा अरब राष्ट्रों की समर्थक है । (4) यह अमेरिका व ब्रिटेन के साथ-साथ अन्य यूरोपीय राष्ट्रों से भी मधुर सम्बन्ध बनाए रखने की पक्षधर है ।
प्रश्न-11. शीत युद्ध से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:- शीतयुद्ध शब्द से सोवियत संघ अमेरिकी शत्रुतापूर्ण एवं तनावपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की अभिव्यक्ति होती है । शीतयुद्ध एक प्रकार का वाक् युद्ध था इसमें वैचारिक घृणा, राजनैतिक अविश्वास, कूटनीतिक जोड़-तोड़, सैनिक प्रतिस्पर्धा, जासूसी और मनोवैज्ञानिक युद्ध जैसे तत्त्व शामिल थे।
प्रश्न-12.संयुक्त राष्ट्र संघ के कोई दो कार्य लिखिए ?
उत्तर:- संयुक्त राष्ट्र के कार्यों में अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा बनाए रखना, मानवाधिकारों की रक्षा करना, मानवीय सहायता पहुँचाना, सतत् विकास को बढ़ावा देना और अंतर्राष्ट्रीय कानून का भली-भाँति कार्यान्वयन करना शामिल है।
प्रश्न-13. भारत एवं पाकिस्तान के मध्य तनाव के दो बिन्दु लिखिए।
उत्तर:- question-5 part-B
प्रश्न-14. तालिबान से आपका क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:- तालिबान (Taliban), अफगानिस्तान में एक देवबंदी इस्लामी कट्टरपंथी जिहादी राजनीतिक आंदोलन है. ये स्वयं को अफगानिस्तान के इस्लामी अमीरात के नाम से भी संदर्भित करता है. संयुक्त राज्य अमेरिका के आक्रमण के बाद, इसने 1996-2001 तक देश के लगभग तीन-चौथाई हिस्से पर शासन किया.
प्रश्न-15. गुट-निरपेक्षता के सिद्धान्त को परिभाषित कीजिए ?
उत्तर:- किसी देश की विदेश नीति रणनीति जहां वह किसी भी प्रमुख शक्ति गुट के साथ औपचारिक सैन्य गठबंधन से बचता है।
प्रश्न-16. शीत युद्ध के प्रमुख कारण कौनसे हैं ?
उत्तर:- शीत युद्ध के प्रमुख कारण
- विचारधारा का टकराव: पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच वैचारिक मतभेद।
- शक्ति का संतुलन: द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ के बीच विश्व शक्ति के लिए प्रतिस्पर्धा।
- यूरोप का विभाजन: जर्मनी का विभाजन और पूर्वी यूरोप में सोवियत प्रभाव का विस्तार।
- परमाणु हथियारों की होड़: दोनों महाशक्तियों के बीच परमाणु हथियारों के विकास की होड़।
- उपनिवेशों का खात्मा और तीसरी दुनिया: नवीन स्वतंत्र राष्ट्रों पर प्रभाव क्षेत्र बनाने की प्रतिस्पर्धा।
प्रश्न-17. ‘पंचशील समझौता’ क्या है ?
उत्तर:- भारत और चीन के बीच वर्ष 1954 में हस्ताक्षरित हुए इस पंचशील समझौते की समयावधि 8 वर्षों की थी, लेकिन 8 वर्षों के बाद इसे पुनः आगे बढ़ाने पर विचार नहीं किया गया
प्रश्न-18. ‘सैन्य वैश्वीकरण’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:- सैनिक वैश्वीकरण (Military globalization) वर्तमान विश्व की दो धाराओं को इंगित करता है- एक तरफ विश्व भर में सैनिक समझौते तथा सैनिक नेटवर्क बहुत अधिक बढ़ चले हैं, दूसरी तरफ प्रमुख सैनिक प्रौद्योगिकीय नवाचारों (जैसे जलयान से उपग्रह तक) के प्रभाव से विश्व एकल भूरणनीतिक क्षेत्र बन गया है।
प्रश्न-19. कुवैत पर इराकी आक्रमण के कारणों का उल्लेख कीजिए ?
उत्तर:-
- तेल भंडार: कुवैत के विशाल तेल भंडारों पर नियंत्रण।
- ओपेक कोटा: तेल उत्पादन कोटा को लेकर असहमति।
- ऐतिहासिक विवाद: सीमा विवाद और क्षेत्रीय वर्चस्व के लिए प्रतिस्पर्धा।
- आर्थिक लाभ: इराकी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए।
- सद्दाम हुसैन की महत्वाकांक्षा: क्षेत्र में प्रभाव बढ़ाने की इच्छा।
प्रश्न-20. ‘मास्ट्रिच संधि’ क्या थी ?
उत्तर:- जिस अंतरराष्ट्रीय समझौते के कारण यूरोपीय संघ की स्थापना हुई, उसे मास्ट्रिच संधि के रूप में जाना जाता है। इस समझौते पर डच शहर मास्ट्रिच में 1992 में हस्ताक्षर किए गए थे, और यह 1993 में लागू हुआ था। इससे संधि पर हस्ताक्षर करने वाले 12 सदस्य देशों के बीच अधिक सहयोग हुआ।
Section-B
प्रश्न-1. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन के महत्व की व्याख्या कीजिए ?
उत्तर:- अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन हमारे विश्व के जटिल और परस्पर जुड़े हुए स्वरूप को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह हमें विभिन्न देशों के बीच के संबंधों, उनके नीतियों और विश्व स्तर पर होने वाली घटनाओं के कारणों और परिणामों को समझने में मदद करता है।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन क्यों महत्वपूर्ण है?
- विश्व घटनाओं को समझना: यह हमें वैश्विक स्तर पर होने वाली घटनाओं जैसे युद्ध, आर्थिक संकट, जलवायु परिवर्तन आदि को बेहतर ढंग से समझने में मदद करता है।
- देश की विदेश नीति को समझना: यह हमें अपने देश की विदेश नीति को समझने में मदद करता है और यह समझने में कि यह नीति विश्व के बाकी हिस्सों को कैसे प्रभावित करती है।
- अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को सुधारना: यह हमें अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को सुधारने और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को बढ़ावा देने में मदद करता है।
- व्यक्तिगत विकास: यह हमें एक वैश्विक नागरिक के रूप में विकसित होने में मदद करता है और हमें विभिन्न संस्कृतियों और परिप्रेक्ष्यों के प्रति अधिक सहिष्णु बनाता है।
- करियर के अवसर: अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन विभिन्न करियर के अवसर प्रदान करता है जैसे कि राजनीति, कूटनीति, अंतर्राष्ट्रीय संगठन और मीडिया।
निष्कर्ष:
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन हमें एक अधिक सूचित और जागरूक नागरिक बनने में मदद करता है। यह हमें विश्व के बारे में एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करता है और हमें वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए बेहतर ढंग से तैयार करता है।
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प्रश्न-2. संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की भूमिका का परीक्षण कीजिए ?
उत्तर:- संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की भूमिका का परीक्षण
संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत एक महत्वपूर्ण और सक्रिय सदस्य देश रहा है। एक विकासशील देश होने के नाते, भारत ने सदैव संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों और सिद्धांतों का समर्थन किया है।
भारत की प्रमुख भूमिकाएं निम्नलिखित हैं:
- शांति स्थापना: भारत ने संयुक्त राष्ट्र के शांति स्थापना अभियानों में सक्रिय रूप से भाग लिया है और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में शांति बहाल करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
- विकास सहयोग: भारत ने विकासशील देशों को आर्थिक और तकनीकी सहायता प्रदान करके वैश्विक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- बहुपक्षवाद: भारत बहुपक्षवाद का एक मजबूत समर्थक रहा है और संयुक्त राष्ट्र जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को मजबूत बनाने के लिए काम करता रहा है।
- मानवाधिकार: भारत मानवाधिकारों के संरक्षण और संवर्धन के लिए प्रतिबद्ध है और संयुक्त राष्ट्र मंच पर मानवाधिकारों के मुद्दों को उठाता रहा है।
- संयुक्त राष्ट्र सुधार: भारत संयुक्त राष्ट्र सुधारों का एक मजबूत समर्थक रहा है और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए प्रयास कर रहा है।
निष्कर्ष:
संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की भूमिका बहुआयामी रही है। भारत ने एक जिम्मेदार वैश्विक नागरिक के रूप में अपनी भूमिका निभाते हुए विश्व शांति, विकास और सहयोग को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
प्रश्न-3. दक्षिण एशिया में सार्क की भूमिका की विवेचना कीजिए ?
उत्तर:- दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) दक्षिण एशिया के देशों के बीच आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और तकनीकी सहयोग को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया एक क्षेत्रीय संगठन है। इसकी स्थापना 1985 में ढाका में हुई थी।
सार्क की भूमिका:
सार्क की दक्षिण एशिया में निम्नलिखित महत्वपूर्ण भूमिकाएं हैं:
- क्षेत्रीय सहयोग: सार्क का मुख्य उद्देश्य क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा देना है। यह व्यापार, परिवहन, ऊर्जा, पर्यावरण, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में सहयोग के लिए मंच प्रदान करता है।
- आर्थिक विकास: सार्क का लक्ष्य क्षेत्रीय आर्थिक विकास को बढ़ावा देना है। यह क्षेत्र में व्यापार को बढ़ावा देने, निवेश को आकर्षित करने और गरीबी को कम करने के लिए काम करता है।
- सांस्कृतिक आदान-प्रदान: सार्क सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने और क्षेत्रीय पहचान को मजबूत करने के लिए काम करता है।
- समस्याओं का समाधान: सार्क क्षेत्रीय समस्याओं के समाधान के लिए एक मंच प्रदान करता है। यह आतंकवाद, नशीली दवाओं की तस्करी और मानव तस्करी जैसी समस्याओं से निपटने के लिए सहयोग करता है।
सार्क की चुनौतियाँ:
- राजनीतिक मतभेद: सदस्य देशों के बीच राजनीतिक मतभेद सार्क की प्रभावशीलता को कम करते हैं।
- आतंकवाद: आतंकवाद क्षेत्रीय सहयोग के लिए एक बड़ी चुनौती है।
- अर्थव्यवस्था में असमानता: सदस्य देशों की अर्थव्यवस्था में असमानता सार्क के प्रयासों को प्रभावित करती है।
- सर्वसम्मति का सिद्धांत: सार्क में सभी निर्णय सर्वसम्मति से लिए जाते हैं, जो निर्णय लेने की प्रक्रिया को धीमा कर सकता है।
निष्कर्ष:
सार्क दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग के लिए एक महत्वपूर्ण मंच है। हालांकि, राजनीतिक मतभेद, आतंकवाद और अर्थव्यवस्था में असमानता जैसी चुनौतियों के कारण सार्क अपनी पूरी क्षमता का उपयोग नहीं कर पा रहा है। सार्क को इन चुनौतियों का सामना करने और क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा देने के लिए अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है।
प्रश्न-4. रूस की विदेश नीति की प्रमुख विशेषताएँ बताइए ?
उत्तर:- रूस की विदेश नीति ऐतिहासिक, भौगोलिक और राजनीतिक कारकों से प्रभावित रही है। शीत युद्ध के बाद से रूस की विदेश नीति में कई बदलाव आए हैं, लेकिन कुछ प्रमुख विशेषताएँ बनी हुई हैं:
प्रमुख विशेषताएँ:
- यूरेशियाई एकीकरण: रूस अपने को यूरेशिया का एक प्रमुख देश मानता है और इस क्षेत्र में अपने प्रभाव को बढ़ाने का प्रयास करता है। यह पूर्व सोवियत संघ के देशों के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखने के साथ-साथ यूरोपीय देशों के साथ भी संबंधों को मजबूत करने का प्रयास करता है।
- महान शक्ति का दर्जा: रूस स्वयं को एक महान शक्ति के रूप में देखता है और अंतर्राष्ट्रीय मामलों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहता है। यह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य होने के नाते वैश्विक स्तर पर अपनी आवाज उठाता है।
- राष्ट्रीय हितों की रक्षा: रूस अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और हितों की रक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है। यह अपने पड़ोसी देशों में किसी भी ऐसे विकास को पसंद नहीं करता जो उसकी सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर सके।
- बहुध्रुवीय विश्व: रूस एक बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का समर्थक है और अमेरिका के एकतरफा वर्चस्व का विरोध करता है।
- ऊर्जा संसाधन: रूस दुनिया के प्रमुख ऊर्जा उत्पादकों में से एक है। यह अपनी ऊर्जा संसाधनों का उपयोग राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने के लिए करता है।
- सैन्य शक्ति: रूस अपनी सैन्य शक्ति को एक महत्वपूर्ण संपत्ति मानता है और इसे अपनी विदेश नीति को आगे बढ़ाने के लिए उपयोग करता है।
- पूर्व सोवियत संघ के देशों के साथ संबंध: रूस पूर्व सोवियत संघ के देशों के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखना चाहता है और इस क्षेत्र में अपने प्रभाव को बनाए रखने का प्रयास करता है।
हाल के वर्षों में रूस की विदेश नीति में बदलाव
हाल के वर्षों में रूस की विदेश नीति में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिले हैं। यूक्रेन संकट के बाद से रूस और पश्चिमी देशों के बीच तनाव बढ़ गया है। रूस ने चीन के साथ अपने संबंधों को मजबूत किया है और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बढ़ाई है।
निष्कर्ष:
रूस की विदेश नीति जटिल और बहुआयामी है। यह ऐतिहासिक, भौगोलिक और राजनीतिक कारकों से प्रभावित होती है। रूस की विदेश नीति को समझने के लिए इन कारकों को ध्यान में रखना आवश्यक है।
प्रश्न-5. भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष तथा तनाव उत्पन्न करने वाले मूल कारण बताइए ?
उत्तर:- भारत और पाकिस्तान के बीच लंबे समय से चल रहा तनाव दोनों देशों के इतिहास, संस्कृति, राजनीति और भूगोल से गहराई से जुड़ा हुआ है। इस तनाव के मूल में कई कारण हैं जिनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं:
विभाजन के समय हुए सांप्रदायिक दंगे और पलायन
- धार्मिक विभाजन: भारत और पाकिस्तान का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था, जिसके कारण दोनों देशों में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे हुए।
- शरणार्थी संकट: विभाजन के समय लाखों लोगों को अपने घरबार छोड़ने पड़े थे, जिससे दोनों देशों में सामाजिक और राजनीतिक तनाव बढ़ गया था।
कश्मीर मुद्दा
- क्षेत्रीय विवाद: जम्मू और कश्मीर दोनों देशों के लिए एक विवादास्पद क्षेत्र रहा है। दोनों देश इस क्षेत्र पर अपना दावा करते हैं।
- आतंकवाद: कश्मीर में सक्रिय आतंकवादी संगठन भारत-पाकिस्तान संबंधों को लगातार तनावपूर्ण बनाते रहते हैं।
जल संसाधन
- सिंधु जल समझौता: सिंधु नदी के जल के बंटवारे को लेकर दोनों देशों के बीच हमेशा तनाव रहा है।
- पानी का महत्व: दोनों देशों के लिए सिंधु नदी का पानी कृषि और अन्य आवश्यकताओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।
सीमा विवाद
- नियंत्रण रेखा: दोनों देशों के बीच नियंत्रण रेखा पर लगातार तनाव रहता है।
- घुसपैठ: दोनों देश एक-दूसरे पर सीमा पार से घुसपैठ करने का आरोप लगाते रहते हैं।
परमाणु हथियारों की होड़
- सुरक्षा चिंताएं: दोनों देशों के पास परमाणु हथियार हैं, जिससे क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा पैदा होता है।
- परमाणु हथियारों का प्रसार: परमाणु हथियारों की होड़ क्षेत्र में अस्थिरता को बढ़ावा देती है।
राजनीतिक कारण
- आंतरिक राजनीति: दोनों देशों में आंतरिक राजनीतिक कारणों से भारत-पाकिस्तान संबंधों को तनावपूर्ण बनाया जाता है।
- जनमत: दोनों देशों में एक-दूसरे के खिलाफ मजबूत जनमत है।
आर्थिक प्रतिस्पर्धा
- क्षेत्रीय प्रभाव: दोनों देश दक्षिण एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं।
- व्यापार और निवेश: दोनों देशों के बीच व्यापार और निवेश संबंधों में उतार-चढ़ाव आता रहता है।
अन्य कारण
- सांस्कृतिक मतभेद: दोनों देशों की संस्कृति और परंपराओं में काफी अंतर है, जो दोनों देशों के बीच दूरियां बढ़ाता है।
- मीडिया का प्रभाव: दोनों देशों में मीडिया एक-दूसरे के खिलाफ नकारात्मक प्रचार करता है, जिससे तनाव बढ़ता है।
निष्कर्ष:
भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव के कई जटिल कारण हैं। इन कारणों को दूर करने के लिए दोनों देशों को एक-दूसरे के साथ बातचीत और सहयोग बढ़ाने की आवश्यकता है।
प्रश्न-6. सुरक्षा परिषद के वीटो पॉवर पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:- संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सबसे शक्तिशाली विशेषता है वीटो पॉवर। यह एक विशेष अधिकार है जो सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों – संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और यूनाइटेड किंगडम को दिया गया है। इन देशों में से कोई भी देश किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय को रोक सकता है, भले ही अन्य सभी सदस्य उस निर्णय के पक्ष में हों।
वीटो पॉवर का महत्व:
- अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा: वीटो पॉवर का उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाए रखना है। यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी एक देश अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के विरुद्ध कार्रवाई न कर सके।
- महान शक्तियों का प्रभाव: वीटो पॉवर महान शक्तियों को अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एक मजबूत स्थिति प्रदान करता है।
- विवाद: वीटो पॉवर अक्सर विवाद का विषय होता है, क्योंकि कुछ लोग मानते हैं कि यह कुछ देशों को अन्य देशों पर अत्यधिक प्रभाव डालने की अनुमति देता है।
वीटो पॉवर की आलोचना:
- अलोकतांत्रिक: वीटो पॉवर को अलोकतांत्रिक माना जाता है क्योंकि यह कुछ देशों को अन्य देशों की इच्छा के विरुद्ध निर्णय लेने से रोकता है।
- अप्रभावी: कुछ लोग मानते हैं कि वीटो पॉवर सुरक्षा परिषद को प्रभावी ढंग से काम करने से रोकता है।
- अन्यायपूर्ण: वीटो पॉवर को अन्यायपूर्ण माना जाता है क्योंकि यह कुछ देशों को विशेष अधिकार देता है।
निष्कर्ष:
वीटो पॉवर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का एक जटिल और विवादास्पद पहलू है। यह अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, लेकिन यह अक्सर आलोचना का विषय भी रहता है।
प्रश्न-7. शीत युद्धोत्तर विश्व की चर्चा कीजिए ?
उत्तर:- शीत युद्धोत्तर विश्व
शीत युद्ध के अंत के बाद विश्व ने एक नए युग में प्रवेश किया जिसे शीत युद्धोत्तर विश्व कहा जाता है। शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के बीच वैश्विक प्रभाव के लिए चल रही प्रतिद्वंद्विता समाप्त हो गई थी। इसने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के स्वरूप को पूरी तरह बदल दिया।
शीत युद्धोत्तर विश्व की प्रमुख विशेषताएं:
- एकध्रुवीय विश्व: शीत युद्ध के अंत के बाद अमेरिका दुनिया की एकमात्र महाशक्ति के रूप में उभरा। यह एकध्रुवीय विश्व का दौर था।
- लोकतंत्र और बाजार अर्थव्यवस्था: शीत युद्ध के बाद लोकतंत्र और बाजार अर्थव्यवस्था को विश्वभर में अपनाया गया।
- अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का महत्व: संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की भूमिका बढ़ गई।
- नए चुनौतियाँ: शीत युद्ध के बाद नए प्रकार की चुनौतियाँ सामने आईं जैसे आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन और गरीबी।
- क्षेत्रीय संगठनों का उदय: क्षेत्रीय संगठनों जैसे यूरोपीय संघ और आसियान का महत्व बढ़ा।
शीत युद्धोत्तर विश्व की चुनौतियाँ:
- असमानता: दुनिया में अमीर और गरीब देशों के बीच असमानता बढ़ी।
- आतंकवाद: आतंकवाद एक गंभीर वैश्विक चुनौती बन गया।
- परमाणु हथियारों का प्रसार: परमाणु हथियारों का प्रसार एक बड़ा खतरा बना रहा।
- जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन एक गंभीर पर्यावरणीय चुनौती बन गया।
निष्कर्ष:
शीत युद्धोत्तर विश्व एक जटिल और गतिशील अवस्था है। इस अवधि में विश्व ने कई बदलाव देखे हैं और नए चुनौतियों का सामना किया है। भविष्य में विश्व किस दिशा में जाएगा यह देखना दिलचस्प होगा।
प्रश्न-8. गुट-निरपेक्षता का अर्थ बताइए। वर्तमान विश्व व्यवस्था में इसकी प्रासंगिकता का परीक्षण कीजिए ?
उत्तर:- गुट-निरपेक्षता का अर्थ है किसी भी महाशक्ति या शक्तिशाली देश के नेतृत्व वाले गुट से जुड़े बिना अपनी स्वतंत्र विदेश नीति अपनाना। शीत युद्ध के दौरान, जब दुनिया दो प्रमुख शक्तियों – अमेरिका और सोवियत संघ के बीच विभाजित थी, तब कई देशों ने इस सिद्धांत को अपनाया था। इन देशों ने तीसरी दुनिया के देशों के रूप में अपनी पहचान बनाई और शांति, सहयोग और विकास के लिए काम किया।
वर्तमान विश्व व्यवस्था में गुट-निरपेक्षता की प्रासंगिकता:
शीत युद्ध के अंत के बाद, दुनिया एकध्रुवीय व्यवस्था की ओर बढ़ी, जिसमें अमेरिका एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरा। हालांकि, हाल के वर्षों में बहुध्रुवीय विश्व की ओर एक बदलाव देखा गया है, जिसमें चीन, रूस और अन्य उभरती हुई शक्तियां विश्व राजनीति में अधिक सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। इस बदलते हुए विश्व व्यवस्था में गुट-निरपेक्षता की प्रासंगिकता निम्नलिखित कारणों से बनी हुई है:
- स्वतंत्रता: छोटे देशों के लिए अपनी स्वतंत्रता और संप्रभुता बनाए रखने के लिए गुट-निरपेक्षता महत्वपूर्ण है।
- शांति: गुट-निरपेक्षता शांति और सहयोग को बढ़ावा देती है।
- विकास: गुट-निरपेक्षता विकासशील देशों को अपने विकास के लिए अधिक विकल्प प्रदान करती है।
- बहुध्रुवीय विश्व: बहुध्रुवीय विश्व में गुट-निरपेक्षता और अधिक प्रासंगिक हो जाती है क्योंकि देशों के पास अधिक विकल्प होते हैं।
हालांकि, गुट-निरपेक्षता की अवधारणा में भी बदलाव आया है। आज, कई देश पूरी तरह से गुट-निरपेक्ष नहीं हैं, बल्कि वे विभिन्न मुद्दों पर अलग-अलग देशों के साथ सहयोग करते हैं।
निष्कर्ष:
गुट-निरपेक्षता आज भी प्रासंगिक है, लेकिन इसका अर्थ और अभ्यास शीत युद्ध के समय से बदल गया है। यह एक ऐसी अवधारणा है जो देशों को अपनी स्वतंत्रता और संप्रभुता बनाए रखने और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को बढ़ावा देने में मदद करती है।
प्रश्न-9. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘नवीन शीतयुद्ध’ पर एक निबन्ध लिखिए।
उत्तर:- नवीन शीतयुद्ध: एक संक्षिप्त निबंध
शीत युद्ध के समाप्त होने के बाद विश्व एक ध्रुवीय व्यवस्था की ओर बढ़ा था, जिसमें अमेरिका एकमात्र महाशक्ति के रूप में उभरा था। हालाँकि, हाल के वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में एक नया बदलाव देखा गया है, जिसे कुछ विश्लेषक “नवीन शीत युद्ध” के रूप में वर्णित करते हैं।
नवीन शीत युद्ध, शीत युद्ध के समान, दो प्रमुख शक्तियों के बीच प्रतिद्वंद्विता को दर्शाता है। इस बार, यह अमेरिका और चीन के बीच है। दोनों देश आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य क्षेत्रों में एक-दूसरे को चुनौती दे रहे हैं। व्यापार युद्ध, प्रौद्योगिकी प्रतिद्वंद्विता, दक्षिण चीन सागर में तनाव और ताइवान मुद्दा इस प्रतिद्वंद्विता के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं।
यह नवीन शीत युद्ध वैश्विक व्यवस्था को गहराई से प्रभावित कर रहा है। यह अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को जटिल बना रहा है और विश्व को नए विभाजनों की ओर धकेल रहा है। यह वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित कर रहा है और वैश्विक मूल्यों पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है।
यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि क्या यह वास्तव में एक नए शीत युद्ध की शुरुआत है या केवल एक प्रतिस्पर्धी दौर। लेकिन यह निश्चित है कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया है और आने वाले समय में इसका प्रभाव पूरी दुनिया में महसूस किया जाएगा।
मुख्य बिंदु:
- यह अभी स्पष्ट नहीं है कि यह एक नया शीत युद्ध होगा या केवल एक प्रतिस्पर्धी दौर।
- शीत युद्ध के बाद एकध्रुवीय विश्व की जगह अब बहुध्रुवीय विश्व का उदय हो रहा है।
- अमेरिका और चीन के बीच बढ़ती प्रतिद्वंद्विता ने नवीन शीत युद्ध की स्थिति पैदा की है।
- यह प्रतिद्वंद्विता वैश्विक व्यवस्था, अर्थव्यवस्था और मूल्यों को प्रभावित कर रही है।
प्रश्न-10. भारत की आण्विक नीति का वर्णन कीजिए ?
उत्तर:- भारत की आण्विक नीति
भारत की आण्विक नीति, यानी परमाणु नीति, एक जटिल और बहुआयामी विषय है। यह राष्ट्रीय सुरक्षा, अंतर्राष्ट्रीय संबंध और वैश्विक परमाणु निरस्त्रीकरण जैसे मुद्दों से जुड़ी हुई है।
भारत की आण्विक नीति की प्रमुख विशेषताएं हैं:
- नो फर्स्ट यूज़: भारत ने ‘नो फर्स्ट यूज़’ की नीति अपनाई हुई है, जिसका अर्थ है कि वह किसी भी गैर-परमाणु संपन्न देश के खिलाफ पहले परमाणु हथियार का उपयोग नहीं करेगा।
- प्रतिरोध का अधिकार: भारत का मानना है कि उसके पास आत्मरक्षा का अधिकार है और वह किसी भी आक्रामक हमले का मुकाबला करने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाएगा।
- न्यूनतम निवारक: भारत की परमाणु शक्ति का उद्देश्य केवल न्यूनतम निवारक होना है, यानी अन्य देशों को हमला करने से रोकना।
- परमाणु अप्रसार संधि (NPT): भारत NPT पर हस्ताक्षर नहीं किया है क्योंकि वह इसे भेदभावपूर्ण मानता है।
- पूर्ण परमाणु निरस्त्रीकरण: भारत लंबे समय से पूर्ण परमाणु निरस्त्रीकरण की वकालत करता रहा है।
भारत की आण्विक नीति के पीछे के कारण:
- राष्ट्रीय सुरक्षा: भारत को पाकिस्तान और चीन जैसे पड़ोसी देशों से परमाणु खतरा महसूस होता है।
- अंतर्राष्ट्रीय दबाव: भारत पर परमाणु हथियारों का विकास न करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव रहा है।
- आत्मनिर्भरता: भारत अपनी सुरक्षा के लिए आत्मनिर्भर बनना चाहता है।
भारत की आण्विक नीति के प्रभाव:
- क्षेत्रीय सुरक्षा: भारत की परमाणु नीति दक्षिण एशिया में परमाणु हथियारों की होड़ को बढ़ावा दे सकती है।
- अंतर्राष्ट्रीय संबंध: भारत के परमाणु हथियारों के कारण उसके अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर प्रभाव पड़ता है।
- आर्थिक विकास: परमाणु हथियारों के विकास और रखरखाव पर होने वाले खर्च से देश के विकास पर असर पड़ सकता है।
निष्कर्ष:
भारत की आण्विक नीति एक संवेदनशील मुद्दा है जो राष्ट्रीय सुरक्षा, अंतर्राष्ट्रीय संबंध और वैश्विक परमाणु निरस्त्रीकरण जैसे मुद्दों से जुड़ा हुआ है। भारत अपनी परमाणु नीति को समय-समय पर बदलता रहता है, लेकिन इसका मूल उद्देश्य राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करना है।
प्रश्न-11. सुरक्षा परिषद् के कार्यों और शक्तियों को स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर:- सुरक्षा परिषद के कार्य और शक्तियां
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने के लिए जिम्मेदार संयुक्त राष्ट्र का सबसे शक्तिशाली अंग है। इसकी स्थापना द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुई थी ताकि भविष्य में इस तरह के युद्धों को रोका जा सके।
सुरक्षा परिषद के प्रमुख कार्य और शक्तियां निम्नलिखित हैं:
- शांति बनाए रखना: सुरक्षा परिषद का मुख्य कार्य अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखना है। इसके लिए यह संघर्षों को रोकने, शांति बहाल करने और शांति स्थापना मिशनों को मंजूरी देने जैसी कार्रवाइयाँ करती है।
- विवादों का निपटारा: सुरक्षा परिषद अंतरराष्ट्रीय विवादों को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाने के लिए प्रयास करती है।
- अर्थव्यवस्था और यात्रा पर प्रतिबंध: सुरक्षा परिषद किसी देश के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध या यात्रा प्रतिबंध लगा सकती है।
- सैन्य कार्रवाई: सुरक्षा परिषद अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए खतरा बनने वाले किसी भी देश के खिलाफ सैन्य कार्रवाई को अधिकृत कर सकती है।
- नए सदस्यों को स्वीकृति देना: सुरक्षा परिषद संयुक्त राष्ट्र में नए सदस्यों को स्वीकृति देने के लिए जिम्मेदार है।
- अंतर्राष्ट्रीय कानून का प्रवर्तन: सुरक्षा परिषद अंतर्राष्ट्रीय कानून का प्रवर्तन करती है।
सुरक्षा परिषद की संरचना:
सुरक्षा परिषद में 15 सदस्य देश हैं, जिनमें से 5 स्थायी सदस्य (संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और यूनाइटेड किंगडम) और 10 अस्थायी सदस्य शामिल हैं। स्थायी सदस्यों के पास वीटो पावर है, जिसका अर्थ है कि वे किसी भी प्रस्ताव को रोक सकते हैं।
सुरक्षा परिषद की चुनौतियाँ:
सुरक्षा परिषद कई चुनौतियों का सामना करती है, जैसे कि स्थायी सदस्यों के बीच मतभेद, बदलती हुई वैश्विक परिस्थितियाँ और सुरक्षा परिषद की संरचना में सुधार की आवश्यकता।
निष्कर्ष:
सुरक्षा परिषद अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण अंग है। हालांकि, इसकी संरचना और कार्यप्रणाली में कई चुनौतियाँ हैं।
प्रश्न-12. शक्ति-सन्तुलन सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर:- शक्ति-संतुलन सिद्धांत अंतरराष्ट्रीय संबंधों का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है जो यह बताता है कि राज्यों के बीच शक्ति का संतुलन बनाए रखना अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को स्थिर रखने का एक महत्वपूर्ण तरीका है। इस सिद्धांत के अनुसार, कोई भी एक राज्य इतना शक्तिशाली नहीं होना चाहिए कि वह अन्य राज्यों को खतरे में डाल सके।
शक्ति-संतुलन सिद्धांत के प्रमुख बिंदु:
- शक्ति का समान वितरण: इस सिद्धांत के अनुसार, राज्यों के बीच शक्ति का समान वितरण होना चाहिए। यदि कोई एक राज्य बहुत शक्तिशाली हो जाता है, तो अन्य राज्य मिलकर उसे चुनौती दे सकते हैं।
- गठबंधन: राज्य अपनी शक्ति बढ़ाने और संतुलन बनाए रखने के लिए गठबंधन बनाते हैं।
- युद्ध की रोकथाम: शक्ति-संतुलन सिद्धांत का उद्देश्य युद्ध को रोकना है। जब सभी राज्य जानते हैं कि कोई भी एक राज्य बहुत शक्तिशाली नहीं है, तो वे युद्ध छेड़ने से हिचकिचाते हैं।
- स्थिरता: शक्ति-संतुलन सिद्धांत अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को स्थिर रखने में मदद करता है।
शक्ति-संतुलन सिद्धांत की आलोचना:
- अस्थिरता: कुछ विद्वानों का मानना है कि शक्ति-संतुलन सिद्धांत अस्थिरता को बढ़ावा देता है क्योंकि राज्य हमेशा अपनी शक्ति बढ़ाने की कोशिश करते हैं।
- युद्ध: शक्ति-संतुलन सिद्धांत हमेशा युद्ध को रोकने में सफल नहीं होता है।
- अवास्तविक: कुछ विद्वानों का मानना है कि शक्ति-संतुलन सिद्धांत एक आदर्श स्थिति है जो वास्तविक दुनिया में कभी नहीं होती है।
निष्कर्ष:
शक्ति-संतुलन सिद्धांत अंतरराष्ट्रीय संबंधों को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण है। हालांकि, यह सिद्धांत पूरी तरह से सटीक नहीं है और इसमें कई सीमाएं हैं।
Section-C
प्रश्न-1. विश्व राजनीति पर शीतयुद्ध की समाप्ति के प्रभाव का वर्णन कीजिए ?
उत्तर:- शीत युद्ध की समाप्ति का विश्व राजनीति पर प्रभाव
शीत युद्ध की समाप्ति ने विश्व राजनीति के परिदृश्य को नाटकीय रूप से बदल दिया। दो महाशक्तियों, अमेरिका और सोवियत संघ के बीच लगभग पचास वर्षों तक चली इस तनावपूर्ण प्रतिद्वंद्विता का अंत हुआ। इस घटना के दूरगामी प्रभाव हुए जो आज भी विश्व राजनीति को आकार देते हैं।
शीत युद्ध की समाप्ति के प्रमुख प्रभाव निम्नलिखित हैं:
- एकध्रुवीय विश्व: सोवियत संघ के पतन के बाद, अमेरिका दुनिया की एकमात्र महाशक्ति के रूप में उभरा। यह एकध्रुवीय विश्व का दौर था, जिसमें अमेरिका का वैश्विक मामलों में दबदबा था।
- लोकतंत्र और बाजार अर्थव्यवस्था का प्रसार: शीत युद्ध के अंत के साथ, लोकतंत्र और बाजार अर्थव्यवस्था को विश्वभर में अपनाया गया। पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ के कई देशों ने कम्युनिस्ट व्यवस्था को त्याग दिया और लोकतांत्रिक सुधारों को अपनाया।
- अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का महत्व: संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की भूमिका बढ़ गई। शीत युद्ध के दौरान दोनों महाशक्तियों के बीच मतभेदों के कारण इन संगठनों की प्रभावशीलता सीमित थी, लेकिन शीत युद्ध के अंत के बाद इनका महत्व बढ़ गया।
- नई चुनौतियाँ: शीत युद्ध के अंत के बाद नए प्रकार की चुनौतियाँ सामने आईं जैसे आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन और गरीबी।
- क्षेत्रीय संगठनों का उदय: क्षेत्रीय संगठनों जैसे यूरोपीय संघ और आसियान का महत्व बढ़ा।
शीत युद्ध की समाप्ति के दीर्घकालिक प्रभाव:
- अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में परिवर्तन: शीत युद्ध के दौरान द्विध्रुवीय विश्व था, जहां सभी देशों को दो गुटों में से एक में शामिल होना होता था। शीत युद्ध के अंत के बाद, अंतर्राष्ट्रीय संबंध अधिक जटिल और बहुआयामी हो गए।
- नई शक्तियों का उदय: चीन, भारत और ब्राजील जैसी नई शक्तियां विश्व राजनीति में उभरी हैं।
- वैश्वीकरण: शीत युद्ध के अंत के बाद वैश्वीकरण तेजी से बढ़ा।
- असमानता: दुनिया में अमीर और गरीब देशों के बीच असमानता बढ़ी।
निष्कर्ष:
शीत युद्ध की समाप्ति विश्व इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी जिसने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को गहराई से प्रभावित किया। इस घटना के परिणामस्वरूप विश्व एक नए युग में प्रवेश किया, जिसमें नई चुनौतियाँ और अवसर सामने आए।
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प्रश्न-2. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के कैप्लान के व्यवस्था सिद्धान्त पर परीक्षण कीजिए ?
उत्तर:- मार्टिन कैप्लान ने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन में व्यवस्था सिद्धांत को एक महत्वपूर्ण आयाम दिया। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को एक गतिशील और परिवर्तनशील इकाई के रूप में देखा, जो विभिन्न प्रकार के कारकों से प्रभावित होती है।
कैप्लान के सिद्धांत की प्रमुख विशेषताएं:
- व्यवस्था के प्रकार: कैप्लान ने अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्थाओं को छह प्रकारों में वर्गीकृत किया: ध्रुवीय, द्विध्रुवीय, बहुध्रुवीय, निरंकुश, संतुलित और विकेंद्रीकृत।
- व्यवस्था के तत्व: कैप्लान के अनुसार, किसी भी व्यवस्था के तीन प्रमुख तत्व होते हैं: एकता, विविधता और परिवर्तन।
- व्यवस्था का कार्य: व्यवस्था का मुख्य कार्य अपने सदस्यों के बीच व्यवस्था बनाए रखना और बाहरी खतरों से उनकी रक्षा करना है।
कैप्लान के सिद्धांत का परीक्षण:
- शीत युद्ध: शीत युद्ध के दौरान, विश्व एक द्विध्रुवीय व्यवस्था में था, जहां अमेरिका और सोवियत संघ दो प्रमुख शक्तियां थीं। कैप्लान का सिद्धांत इस अवधि के दौरान अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को समझने में उपयोगी साबित हुआ।
- शीत युद्ध के बाद: शीत युद्ध के अंत के बाद, विश्व एक बहुध्रुवीय व्यवस्था की ओर बढ़ रहा है, जहां कई शक्तियां वैश्विक राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। कैप्लान का सिद्धांत इस परिवर्तन को समझने में भी मदद करता है।
- आलोचनाएं: कैप्लान के सिद्धांत की कई आलोचनाएं भी हुई हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि यह सिद्धांत बहुत सरल है और वास्तविक दुनिया की जटिलताओं को पूरी तरह से नहीं समझा पाता है। अन्य विद्वानों का मानना है कि यह सिद्धांत इतिहास के एक विशेष समय में विकसित हुआ था और आज के समय में इसकी प्रासंगिकता कम हो गई है।
निष्कर्ष:
कैप्लान का व्यवस्था सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन में एक महत्वपूर्ण योगदान है। यह सिद्धांत हमें अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को एक गतिशील और परिवर्तनशील इकाई के रूप में देखने में मदद करता है। हालांकि, इस सिद्धांत की अपनी सीमाएं हैं और इसे अन्य सिद्धांतों के साथ संयोजित करके अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।
प्रश्न-3. भारत की विदेश नीति की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए ?
उत्तर:- भारत की विदेश नीति सदैव से जटिल और बहुआयामी रही है। यह देश की भौगोलिक स्थिति, इतिहास, और वैश्विक परिदृश्य के लगातार बदलते स्वरूप से प्रभावित होती रही है। हालाँकि, भारत की विदेश नीति की कई पहलुओं पर आलोचना भी होती रही है।
आलोचना के प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:
- गुटनिरपेक्षता की सीमाएं: भारत ने स्वतंत्रता के बाद गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई थी, लेकिन बदलते विश्व परिदृश्य में इस नीति की प्रासंगिकता पर सवाल उठते रहे हैं।
- पड़ोसी देशों के साथ संबंध: भारत के पड़ोसी देशों, विशेषकर पाकिस्तान और चीन के साथ संबंध हमेशा तनावपूर्ण रहे हैं। इन संबंधों को सुधारने में भारत की विदेश नीति को अधिक सफल नहीं माना जाता।
- आर्थिक हितों पर पर्याप्त ध्यान न देना: कुछ विश्लेषकों का मानना है कि भारत की विदेश नीति में आर्थिक हितों को पर्याप्त महत्व नहीं दिया जाता है।
- वैश्विक मंच पर प्रभाव का अभाव: भारत एक बड़ी अर्थव्यवस्था और दुनिया की सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश है, फिर भी वैश्विक मंच पर इसका प्रभाव उतना मजबूत नहीं है जितना कि होना चाहिए।
- आतंकवाद के मुद्दे पर दृढ़ता का अभाव: पाकिस्तान से आने वाले आतंकवाद के खतरे के बावजूद, भारत की विदेश नीति को आतंकवाद के मुद्दे पर पर्याप्त रूप से दृढ़ नहीं माना जाता है।
आलोचनाओं के बावजूद, भारत की विदेश नीति की सफलताएं भी रही हैं:
- परमाणु शक्ति: भारत एक परमाणु शक्ति के रूप में उभरा है और इसने दक्षिण एशिया में अपनी स्थिति को मजबूत किया है।
- अंतरिक्ष कार्यक्रम: भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम विश्व स्तर पर सराहा जाता है।
- वैश्विक दक्षिण के साथ संबंध: भारत ने वैश्विक दक्षिण के देशों के साथ मजबूत संबंध स्थापित किए हैं।
निष्कर्ष:
भारत की विदेश नीति एक गतिशील प्रक्रिया है जो लगातार बदलते वैश्विक परिदृश्य के अनुरूप ढलती रहती है। इस नीति की कई सफलताएं रही हैं, लेकिन साथ ही इसमें सुधार की भी गुंजाइश है। भारत को अपनी विदेश नीति को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए आर्थिक हितों, क्षेत्रीय सहयोग और वैश्विक चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।
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