VMOU HD-03 Paper BA 2nd Year ; vmou exam paper 2024
नमस्कार दोस्तों इस पोस्ट में VMOU BA First Year के लिए हिन्दी साहित्य [ HD-03 , हिन्दी गद्य भाग-II (नाटक एवं अन्य गद्य विधाएँ) ] का पेपर उत्तर सहित दे रखा हैं जो जो महत्वपूर्ण प्रश्न हैं जो परीक्षा में आएंगे उन सभी को शामिल किया गया है आगे इसमे पेपर के खंड वाइज़ प्रश्न दे रखे हैं जिस भी प्रश्नों का उत्तर देखना हैं उस पर Click करे –
Section-A
प्रश्न-1. प्रसाद जी के दो ऐतिहासिक नाटकों के नाम लिखिए?
उत्तर:- अजातशत्रु, चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त और ध्रुवस्वामिनी उनके नाटक हैं , कंकाल, तितली और इरावती उपन्यास और आकाशदीप, आँधी और इंद्रजाल उनके कहानी संग्रह हैं।
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प्रश्न-2. ‘ध्रुवस्वामिनी’ के चरित्र की दो विशेषताएँ बताइए ?
उत्तर:- ध्रुवस्वामिनी ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक की एक प्रेरणादायक चरित्र है। वह एक आदर्श महिला का प्रतीक है जो अपनी आत्मनिर्भरता, साहस, प्रेम और समर्पण के लिए जानी जाती है।
प्रश्न-3. ललित निबंध को परिभाषित कीजिए ?
उत्तर:- ललित निबंध को आत्मपरक, विषयप्रधान और व्यक्तिनिष्ठ निबंध भी कहते हैं । हिंदी साहित्य को यह आधुनिक युग की देन है । “ललित शब्द सन् 1940 के बाद रचित हिंदी के व्यक्ति-व्यंजक निबंधों के लिए रूढ़-सा हो गया है ।” ‘ललित निबंध’ निबंध के साथ ‘ललित’ विशेषण से बना है । ललित से तात्पर्य विदग्धता और रसप्रवणता है ।
प्रश्न-4. रांगेय राघव के रिपोर्ताज संग्रह का नाम बताइए ?
उत्तर:-रांगेय राघव के रिपोर्ताज संग्रह
- तूफानों के बीच: यह बंगाल के अकाल (1943) का एक रिपोर्ताज है।
- अंधेरे में दीप: यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मनी की स्थिति का एक रिपोर्ताज है।
- अमेरिका की आत्मा: यह अमेरिकी समाज और संस्कृति का एक रिपोर्ताज है।
- सोवियत रूस की कहानी: यह सोवियत संघ (1952) की यात्रा का एक रिपोर्ताज है।
- चीन की लाल दीवारें: यह चीन की यात्रा (1956) का एक रिपोर्ताज है।
प्रश्न-5.भोलाराम का जीव फाइलों में क्यों अटका हुआ था ? दो पंक्तियों में उत्तर दीजिए।
उत्तर:- उसका जीव उन फाइलों को छोड़कर स्वर्ग भी नहीं जाना चाहता। नारद द्वारा भोलाराम के जीव को ढूंढ लेने पर वे साथ चलने को कहते है परंतु भोलाराम – का जीवन पेंशन की फाइलो को छोड़कर नहीं जाना चाहता । ‘मुझे नहीं जाना । मैं तो पेंशन की दरख्वास्तों में अटका हूँ।
प्रश्न-6.’संकलनत्रय’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:- संकलनत्रय नाटक और एकांकी में काल, स्थान, और कार्य के लिए प्रयुक्त एक पारिभाषिक शब्द है। यह त्रय नाटक या एकांकी की एकता और प्रभावशीलता को बनाए रखने के लिए आवश्यक माना जाता है।
- काल: नाटक या एकांकी में घटित होने वाली घटनाओं का समय।
- स्थान: जहाँ घटनाएं घटित होती हैं।
- कार्य: नाटक या एकांकी का मुख्य विषय या घटनाक्रम।
संकलनत्रय का अर्थ है इन तीनों तत्वों का एकीकरण और समन्वय। यह सुनिश्चित करता है कि नाटक या एकांकी में तार्किकता, सुसंगतता और प्रभावशीलता बनी रहे।
प्रश्न-7. महादेवी वर्मा का जन्म कब हुआ था ?
उत्तर:- महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च 1907 को हुआ था। उनका जन्मस्थान उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले का ‘समीक्षा’ गांव था।
प्रश्न-8. प्रेमचंद का जन्म कब और कहाँ हुआ था ?
उत्तर:- प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को वाराणसी के पास लमही नामक एक गांव में हुआ था।
प्रश्न-9. घीसा’ की दो चारित्रिक विशेषताएँ बताइये ?
उत्तर:- घीसा का चरित्र प्रेमचंद की ‘कफ़न’ कहानी में अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो गरीबी, निराशा और निर्मम यथार्थवाद के प्रतीक के रूप में उभरता है। घीसा की निराशा और हताशा, साथ ही निर्मम यथार्थवाद, उसके चरित्र को गहराई और वास्तविकता प्रदान करते हैं, जो पाठकों को सोचने पर मजबूर करते हैं कि कैसे गरीबी और अभाव मानव जीवन और उसकी संवेदनाओं को प्रभावित कर सकते हैं।
प्रश्न-10. ‘अदम्य जीवन’ किस विधा की रचना है ?
उत्तर:- यह रांगेय राघव द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध रिपोर्ताज है।
प्रश्न-11. ‘प्रसाद स्कूल’ से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:- प्रसार शिक्षा व्यक्ति को नई खोजों, वैज्ञानिक तरीकों ज्ञान व तकनीकी को अपनाने हेतु प्रोत्साहित करती है। प्रसार कार्यकर्ता वैज्ञानिकों व ग्रामीण लोगों के बीच का अंतर कम करता है। इसलिए स्वैच्छिक भागीदारी तथा नई तकनीकों को अपनाने और बदलाव हेतु विचार को प्रोत्साहन देना प्रसार शिक्षा का मुख्य सिद्धांत है।
प्रश्न-12. ‘महाभारत की साँझ’ एकांकी के रचयिता का नाम लिखिए ?
उत्तर:- महाभारत की एक सांझ” ‘भारत भूषण अग्रवाल’ द्वारा लिखा गया एक एकांकी है ।
प्रश्न-13.नाटक के प्रमुख तत्त्वों का उल्लेख कीजिए ?
उत्तर:- नाटक के मूल तत्त्व
- अभिनय
- कथावस्तु
- पात्र
- उद्देश्य
- भाषा शैली
- देशकाल वातावरण
- संवाद
- अंगीरस
प्रश्न-14. ‘आवारा मसीहा’ किस महान रचनाकार की जीवनी है?
उत्तर:- विष्णु प्रभाकर
प्रश्न-15. ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक के प्रमुख पात्रों के नाम लिखिए।
उत्तर:- “ध्रुवस्वामिनी” नाटक में पात्रों की संख्या ज्यादा नहीं है इसमें ध्रुवस्वामिनी, मंदाकिनी और कोमा तीन स्त्री पात्र हैं तथा रामगुप्त, चंद्रगुप्त, शिखरस्वामी, शकराज, खिंगिल, मिहिरदेव और पुरोहित सात पुरुष पात्र हैं।
प्रश्न-16. ‘महाभारत की एक साँझ’ किस विधा की रचना है ?
उत्तर:- एकांकी
प्रश्न-17. ‘भोलाराम का जीव’ के लेखक का नाम बताइये।
उत्तर:- Harishankar Parsai (हरिशंकर परसाई)
प्रश्न-18. ‘अदम्य जीवन’ के रचनाकार का नाम बताइये।
उत्तर:- रांगेय राघव द्वारा लिखित रिपोर्ताज
प्रश्न-19. ‘हालावाद’ का प्रवर्तक किसे माना जाता है ?
उत्तर:- हालावाद के प्रवर्तक कवि हरिवंश राय बच्चन जी है।
प्रश्न-20. डॉ रामविलास शर्मा की किन्हीं दो आलोचनात्मक कृतियों के नाम लिखिए।
उत्तर:- हिंदी नवजागरण ,भारतेंदु और उनका साहित्य
Section-B
प्रश्न-1. हिन्दी साहित्य की प्रमुख जीवनियों पर एक लेख लिखिए?
उत्तर:- हिन्दी साहित्य में जीवनियाँ एक महत्वपूर्ण विधा हैं, जो किसी व्यक्ति के जीवन की घटनाओं, संघर्षों, सफलताओं और उनके व्यक्तित्व को विस्तार से प्रस्तुत करती हैं। जीवनियों के माध्यम से हम न केवल उस व्यक्ति को गहराई से समझ पाते हैं, बल्कि उस काल और समाज के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त करते हैं। यहां कुछ प्रमुख हिन्दी जीवनियों का वर्णन किया जा रहा है, जिन्होंने साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है:
1. ‘गांधीजी की आत्मकथा: सत्य के प्रयोग’ – महात्मा गांधी
महात्मा गांधी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं, आदर्शों और संघर्षों का विवरण प्रस्तुत करती है। इस जीवनी में गांधीजी के प्रारंभिक जीवन, शिक्षा, दक्षिण अफ्रीका में उनके अनुभव, और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका का सजीव वर्णन मिलता है। यह पुस्तक न केवल गांधीजी के जीवन को समझने के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि सत्य और अहिंसा के उनके सिद्धांतों को भी स्पष्ट करती है।
2. ‘पंतजी की जीवनी’ – रामचंद्र तिवारी
महाकवि सुमित्रानंदन पंत की जीवनी रामचंद्र तिवारी द्वारा लिखी गई है। इसमें पंतजी के जीवन, उनकी काव्य यात्रा, व्यक्तिगत संघर्षों और साहित्यिक योगदान का विस्तार से वर्णन है। पंतजी की कविता और जीवन के माध्यम से हिन्दी साहित्य में छायावादी युग की उत्कृष्टता को समझा जा सकता है।
3. ‘दिनकर की आत्मकथा: संस्मरण और साक्षात्कार’ – रामधारी सिंह दिनकर
रामधारी सिंह दिनकर की यह आत्मकथा उनके जीवन की घटनाओं, विचारों और साहित्यिक यात्रा का विस्तार से वर्णन करती है। दिनकर जी की रचनाओं ने हिन्दी साहित्य में एक नई दिशा दी और उनकी आत्मकथा उनके साहित्यिक और व्यक्तिगत जीवन के विभिन्न पहलुओं को उजागर करती है।
4. ‘महादेवी की जीवन यात्रा’ – महादेवी वर्मा
महादेवी वर्मा की यह आत्मकथा उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं और साहित्यिक योगदानों को प्रस्तुत करती है। महादेवी वर्मा हिन्दी साहित्य की एक प्रमुख कवयित्री थीं और उनकी जीवनी से उनकी रचनात्मकता, संघर्ष और संवेदनशीलता का परिचय मिलता है।
5. ‘अज्ञेय की जीवनी’ – निर्मल वर्मा
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की यह जीवनी निर्मल वर्मा द्वारा लिखी गई है। इसमें अज्ञेय के साहित्यिक योगदान, व्यक्तिगत संघर्षों और उनके विचारों का विस्तार से वर्णन किया गया है। अज्ञेय हिन्दी साहित्य में प्रयोगवाद और नई कविता के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं।
6. ‘प्रेमचंद: कलम का सिपाही’ – अमृतराय
अमृतराय द्वारा लिखित ‘प्रेमचंद: कलम का सिपाही’ मुंशी प्रेमचंद के जीवन और उनके साहित्यिक योगदान पर आधारित है। इस जीवनी में प्रेमचंद के संघर्षों, साहित्यिक यात्रा और उनके समय के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य का वर्णन है।
7. ‘मन्नू भंडारी: एक कहानीकार की आत्मकथा’ – मन्नू भंडारी
मन्नू भंडारी की आत्मकथा उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं, साहित्यिक यात्रा और व्यक्तिगत संघर्षों को दर्शाती है। मन्नू भंडारी हिन्दी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और उनकी कहानियों ने समाज को गहराई से प्रभावित किया है।
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प्रश्न-2. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबंध की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबंध की विशेषताएँ:
विचारों की गहनता और मौलिकता:
- शुक्ल जी के निबंधों में विचारों की गहनता और मौलिकता उनकी सबसे बड़ी विशेषता है।
- वे किसी भी विषय पर गहनता से विचार करते थे और अपनी राय स्पष्ट और तर्कपूर्ण ढंग से व्यक्त करते थे।
- उनके निबंधों में नए विचारों और अंतर्दृष्टि की भरमार होती है।
विश्लेषणात्मक शैली:
- शुक्ल जी की निबंध शैली अत्यंत विश्लेषणात्मक है।
- वे किसी भी विषय का गहन विश्लेषण करते थे और उसके विभिन्न पहलुओं को उजागर करते थे।
- उनके निबंधों में तार्किकता और सुसंगतता का अभाव नहीं होता है।
सरल और प्रभावशाली भाषा:
- शुक्ल जी की भाषा सरल, सहज और प्रभावशाली है।
- वे तत्सम शब्दों का प्रयोग करते थे, लेकिन उनकी भाषा कभी भी बोझिल या कठिन नहीं लगती।
- वे अपनी बातों को सरल शब्दों में इस तरह से समझाते थे कि पाठक उन्हें आसानी से समझ सकें।
विषयवस्तु की विविधता:
- शुक्ल जी ने विभिन्न विषयों पर निबंध लिखे हैं, जिनमें साहित्य, इतिहास, दर्शन, समाज, संस्कृति, और राजनीति शामिल हैं।
- उनके निबंधों में विषयवस्तु की विविधता है, जो उन्हें और भी आकर्षक बनाती है।
उदाहरणों का प्रभावशाली प्रयोग:
वे अपनी बातों को स्पष्ट और प्रभावशाली बनाने के लिए ऐतिहासिक, साहित्यिक और सामाजिक उदाहरणों का उपयोग करते थे। शुक्ल जी अपने निबंधों में उदाहरणों का प्रभावशाली प्रयोग करते थे।
प्रश्न-3.’नाखून क्यों बढ़ते हैं’ निबंध का मूल प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:- ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’ निबंध का मूल प्रतिपाद्य एक सरल लेकिन महत्वपूर्ण जीवन के तथ्य को उजागर करना है। इस निबंध में लेखक ने नाखूनों के बढ़ने की प्राकृतिक प्रक्रिया के माध्यम से जीवन के विभिन्न पहलुओं और मानव स्वभाव पर गहराई से विचार किया है। निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से निबंध का प्रतिपाद्य स्पष्ट किया जा सकता है:
मानव स्वभाव और समाज: निबंध में यह भी बताया गया है कि नाखूनों की तरह ही हमारे विचार और आदतें भी निरंतर बढ़ती और बदलती रहती हैं। यह हमें आत्म-निरीक्षण और आत्म-सुधार की आवश्यकता को समझने के लिए प्रेरित करता है। समाज में भी, व्यक्तियों के विचारों और व्यवहार में निरंतर बदलाव आता है, जो सामाजिक प्रगति और विकास का प्रतीक है।
प्राकृतिक वृद्धि और परिवर्तन: नाखूनों का बढ़ना जीवन में निरंतरता और परिवर्तन का प्रतीक है। जैसे नाखून लगातार बढ़ते रहते हैं, वैसे ही जीवन में भी परिवर्तन अनिवार्य है। यह प्रतिपाद्य जीवन के प्राकृतिक चक्र और उसमें हो रहे परिवर्तनों को सहज रूप में स्वीकारने की प्रेरणा देता है।
स्वास्थ्य और देखभाल: नाखूनों का बढ़ना शरीर के स्वास्थ्य का संकेत है। स्वच्छ और स्वस्थ नाखून अच्छे स्वास्थ्य का प्रतीक होते हैं। इस प्रकार, निबंध हमें यह संदेश देता है कि हमें अपने शरीर की देखभाल करनी चाहिए और स्वस्थ जीवनशैली अपनानी चाहिए।
सौंदर्य और स्वच्छता: नाखूनों का नियमित रूप से बढ़ना और उन्हें संवारना, साफ रखना, सौंदर्य और स्वच्छता का प्रतीक है। यह निबंध बताता है कि कैसे हमारे छोटे-छोटे कार्य, जैसे नाखून काटना और साफ रखना, हमारी स्वच्छता और व्यक्तित्व को दर्शाते हैं।
समय का महत्व: नाखूनों का लगातार बढ़ना समय के बीतने का प्रतीक है। यह निबंध हमें समय के महत्व को समझने और उसका सदुपयोग करने की प्रेरणा देता है। समय का सदुपयोग और सही दिशा में प्रयास करने से हम जीवन में सफल हो सकते हैं।
प्रश्न-4. ‘घीसा’ का चरित्र-चित्रण कीजिए ?
उत्तर:- ‘घीसा’ का चरित्र-चित्रण:
महादेवी वर्मा द्वारा रचित “स्मृति की रेखाएं” में ‘घीसा’ नामक एक नौ वर्षीय बालक का चरित्र अत्यंत प्रभावशाली और हृदयस्पर्शी है।
उसकी शारीरिक विशेषताएं:
- घीसा एक दुर्बल और कुपोषण शिकार वाला बालक था।
- उसका चेहरा मुरझाया हुआ और आँखें उदास थीं।
- उसके कपड़े फटे-पुराने और गंदे थे।
- वह हमेशा नंगे पैरों चलता था।
उसकी मानसिक विशेषताएं:
- घीसा अत्यंत बुद्धिमान और जिज्ञासु बालक था।
- वह सीखने के प्रति उत्सुक था और हमेशा ज्ञान की तलाश में रहता था।
- वह कल्पनाशील और रचनात्मक भी था।
- उसके हृदय में दया और करुणा की भावना थी।
- वह अपनी माँ से अत्यंत प्रेम करता था।
उसकी सामाजिक स्थिति:
- घीसा एक गरीब और अनाथ बालक था।
- उसका कोई पिता नहीं था और उसकी माँ बीमार रहती थी।
- वह समाज के उपेक्षित वर्ग से ताल्लुक रखता था।
- उसे अक्सर लोगों द्वारा ताना और उपेक्षा का सामना करना पड़ता था।
उसकी विशेषताएं:
- वह ईश्वर पर श्रद्धा रखता था और भक्ति में लीन रहता था।
- घीसा एक अत्यंत दृढ़निश्चयी और आत्मविश्वासी बालक था।
- वह अपनी परिस्थितियों से हार नहीं मानता था।
- वह हमेशा बेहतर भविष्य की आशा रखता था।
- वह अपनी माँ के प्रति समर्पित और कर्तव्यनिष्ठ था।
प्रश्न-5. व्यंग्य के अर्थ एवं स्वरूप को स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:- व्यंग्य का अर्थ एवं स्वरूप:
व्यंग्य एक ऐसी विधा है जिसमें किसी विषय, व्यक्ति या विचार की आलोचना या निंदा हास्यपूर्ण या अप्रत्यक्ष ढंग से की जाती है। यह आलोचना तीखी और कटु हो सकती है, लेकिन इसका उद्देश्य सदैव हानिकारक नहीं होता। व्यंग्य का प्रयोग सामाजिक बुराइयों, राजनीतिक कुरीतियों, और मानवीय कमजोरियों को उजागर करने के लिए किया जाता है, ताकि लोगों का ध्यान इन समस्याओं की ओर आकर्षित किया जा सके और उन्हें सुधारने के लिए प्रेरित किया जा सके।
व्यंग्य के स्वरूप की कुछ विशेषताएं:
- अप्रत्यक्षता: व्यंग्य में आलोचना सीधे तौर पर नहीं की जाती, बल्कि हास्य, अतिशयोक्ति, विडंबना, प्रतीकात्मकता, या अन्य साहित्यिक उपकरणों का प्रयोग करके की जाती है।
- हास्य: व्यंग्य में हास्य का प्रयोग आलोचना को प्रभावशाली बनाने के लिए किया जाता है। हास्य पाठक को आकर्षित करता है और उसे गंभीर विषयों पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है।
- अतिशयोक्ति: व्यंग्यकार अपनी बात को प्रभावशाली बनाने के लिए अतिशयोक्ति का प्रयोग करते हैं। वे किसी विषय या स्थिति को आवश्यकता से अधिक बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं, ताकि पाठक उस पर ध्यान दे सकें।
- विडंबना: विडंबना व्यंग्य का एक महत्वपूर्ण उपकरण है। इसमें विपरीतार्थ का प्रयोग किया जाता है, ताकि पाठकों को किसी विषय की असलियत का एहसास हो सके।
- प्रतीकात्मकता: व्यंग्यकार प्रतीकों का प्रयोग अपनी बात को अधिक गहराई से समझाने के लिए करते हैं। प्रतीक पाठकों को कल्पना करने और सोचने के लिए प्रेरित करते हैं।
व्यंग्य के प्रकार:
- कर्म-व्यंग्य: इस प्रकार के व्यंग्य में पात्रों के कार्यों और व्यवहार के माध्यम से आलोचना की जाती है।
- हास्य-व्यंग्य: इस प्रकार के व्यंग्य में हास्य का प्रयोग आलोचना को हल्का-फुल्का और मनोरंजक बनाने के लिए किया जाता है।
- करुण-व्यंग्य: इस प्रकार के व्यंग्य में करुणा का प्रयोग आलोचना को मार्मिक और प्रभावशाली बनाने के लिए किया जाता है।
- शब्द-व्यंग्य: इस प्रकार के व्यंग्य में शब्दों के चयन और प्रयोग के माध्यम से आलोचना की जाती है।
प्रश्न-6. ‘महाभारत की साँझ’ एकांकी में परिवेश का महत्व निरूपित कीजिए ?
उत्तर:- ‘महाभारत की साँझ’ एकांकी में परिवेश का महत्व
‘महाभारत की साँझ’ एकांकी में परिवेश का महत्व अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह नाटक के भाव, पात्रों की मनोदशा, और समग्र कथा को गहराई और सजीवता प्रदान करता है। एकांकी में परिवेश का निम्नलिखित रूपों में महत्व है:
1. इतिहास और पौराणिकता का पुनर्निर्माण:
महाभारत के ऐतिहासिक और पौराणिक परिवेश को नाटक में सजीव करने का प्रयास किया गया है। यह परिवेश महाभारत की घटनाओं, युद्ध की विभीषिका, और उसके पश्चात की परिस्थिति को दर्शाता है। पौराणिक परिवेश न केवल कथा को प्रामाणिकता प्रदान करता है बल्कि दर्शकों को उस कालखंड में ले जाता है जहाँ महाभारत की घटनाएं घटित हुई थीं।
2. भावनात्मक और मानसिक वातावरण:
एकांकी के पात्रों के मानसिक और भावनात्मक परिवेश को भी बारीकी से चित्रित किया गया है। युद्ध के बाद की निराशा, हताशा, पश्चाताप और अपराधबोध को परिवेश के माध्यम से व्यक्त किया गया है। परिवेश में उपयुक्त दृश्य और ध्वनि प्रभावों का प्रयोग पात्रों की मनोस्थिति को गहराई से समझने में मदद करता है।
3. युद्ध की विभीषिका और उसका प्रभाव:
युद्ध के बाद के परिवेश को चित्रित करके यह दिखाया गया है कि युद्ध का प्रभाव केवल रणभूमि तक सीमित नहीं रहता, बल्कि समाज और परिवारों पर भी गहरा असर डालता है। ध्वस्त महल, वीरान रास्ते, और खंडहरों के चित्रण के माध्यम से युद्ध की विनाशकारी प्रभाव को दर्शाया गया है।
4. नैतिक और दार्शनिक चिंतन:
परिवेश के माध्यम से नाटक में गहरे नैतिक और दार्शनिक विचारों को उकेरा गया है। महाभारत की घटनाओं के बाद के परिवेश में पात्रों द्वारा किए गए चिंतन और संवाद दर्शकों को जीवन, धर्म, कर्म, और न्याय के बारे में सोचने पर मजबूर करते हैं। यह परिवेश नाटक के नैतिक संदेश को अधिक प्रभावी बनाता है।
5. सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भ:
नाटक में परिवेश के माध्यम से तत्कालीन समाज की सांस्कृतिक और सामाजिक स्थिति को भी प्रस्तुत किया गया है। इस परिवेश में सामाजिक मान्यताएं, धार्मिक अनुष्ठान, और पारिवारिक संबंधों का चित्रण किया गया है, जो महाभारत की कथा को समझने में मदद करता है और उसे अधिक संदर्भित बनाता है।
प्रश्न-7. ‘महाभारत की साँझ’ एकांकी की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए ?
उत्तर:- ‘महाभारत की साँझ’ एकांकी की कथावस्तु
पात्र:
- संजय: धृतराष्ट्र के सारथी और सलाहकार
- धृतराष्ट्र: हस्तिनापुर के अंधे राजा
- विदुर: धृतराष्ट्र के सौतेले भाई और हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री
- गांधारी: धृतराष्ट्र की पत्नी और दुर्योधन की माँ
- शकुनी: गांधारी के भाई और दुर्योधन के मामा
कहानी:
एक शाम, हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र अपनी पत्नी गांधारी और सारथी संजय के साथ बैठे हैं। वे महाभारत युद्ध के बारे में सोच रहे हैं, जो अभी समाप्त हुआ है।
संजय धृतराष्ट्र को युद्ध का वर्णन करते हैं। वे बताते हैं कि कैसे कौरवों और पांडवों के बीच भयंकर युद्ध हुआ।
धृतराष्ट्र अपने सभी पुत्रों की मृत्यु के बारे में सुनकर दुखी होते हैं। वे गांधारी को गले लगाते हैं और रोने लगते हैं।
गांधारी भी अपने पुत्रों की मृत्यु से दुखी हैं। वे धृतराष्ट्र को सांत्वना देती हैं और उन्हें शक्ति प्रदान करती हैं।
विदुर और शकुनी भी आते हैं। वे भी युद्ध के बारे में चर्चा करते हैं।
विदुर धृतराष्ट्र को बताते हैं कि युद्ध उनके लालच और अहंकार के कारण हुआ। वे कहते हैं कि यदि उन्होंने पांडवों को उनका हक नहीं दिया होता, तो युद्ध कभी नहीं होता।
शकुनी धृतराष्ट्र को दोषी ठहराते हैं। वे कहते हैं कि यदि उन्होंने युद्ध में भाग नहीं लिया होता, तो उनके पुत्र जीवित होते।
धृतराष्ट्र अपने किए पर पश्चाताप करते हैं। वे महसूस करते हैं कि उन्होंने गलती की है।
गांधारी धृतराष्ट्र को क्षमा करती हैं। वे कहती हैं कि उन्हें अपने कर्मों का फल भुगतना होगा।
एकांकी का अंत धृतराष्ट्र और गांधारी के शांत स्वीकृति के साथ होता है। वे अपने दुख को स्वीकार करते हैं और भविष्य की ओर देखते हैं।
‘महाभारत की साँझ’ एकांकी महाभारत युद्ध के बाद के दुख और पश्चाताप की कहानी है।
यह एकांकी युद्ध की विनाशकारी शक्ति और लालच और अहंकार के खतरों के बारे में एक शक्तिशाली संदेश देता है।
प्रश्न-8. ध्रुवस्वामिनी’ नाटक के संवादों की विशेषताएँ बताइए ?
उत्तर:- जयशंकर प्रसाद का नाटक ‘ध्रुवस्वामिनी’ हिन्दी नाटक के महत्वपूर्ण उदाहरणों में से एक है। इस नाटक में संवादों की विशेषताएँ न केवल पात्रों की मनोस्थिति और उनकी भावनाओं को उजागर करती हैं, बल्कि नाटक के विषय और उद्देश्यों को भी स्पष्ट करती हैं। निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से ‘ध्रुवस्वामिनी’ के संवादों की प्रमुख विशेषताएँ समझी जा सकती हैं:
1. भावनात्मक गहराई:
ध्रुवस्वामिनी के संवादों में गहरी भावनात्मक शक्ति होती है। ये संवाद पात्रों की आंतरिक स्थिति, उनके संघर्ष और भावनात्मक द्वंद्व को प्रकट करते हैं। उदाहरणस्वरूप, ध्रुवस्वामिनी के संवाद उसकी आत्म-संमान और स्वतंत्रता की मांग को व्यक्त करते हैं, जो उसके संघर्ष की गहराई को दर्शाते हैं।
2. ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भ:
नाटक के संवाद ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भों को संजोए हुए होते हैं। वे उस समय की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थितियों को दर्शाते हैं। ध्रुवस्वामिनी के संवादों में उस काल की नारी की स्थिति, उसकी समस्याएँ और उसकी संघर्षशीलता को स्पष्ट रूप से दिखाया गया है।
3. साहित्यिक उत्कृष्टता:
जयशंकर प्रसाद के संवादों में साहित्यिक सौंदर्य और उत्कृष्टता का अद्भुत मिश्रण होता है। उनके संवाद उच्चकोटि की भाषा और शृंगारी अलंकरण से परिपूर्ण होते हैं। उनकी भाषा में शुद्धता, स्पष्टता और सुंदरता होती है, जो नाटक को एक साहित्यिक अनुभव बनाती है।
4. संघर्ष और विरोध:
ध्रुवस्वामिनी के संवाद संघर्ष और विरोध की भावना को दर्शाते हैं। वे न केवल व्यक्तिगत संघर्षों को प्रकट करते हैं, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक विरोधों को भी उजागर करते हैं। ध्रुवस्वामिनी के संवाद उसकी स्थिति और उसके द्वारा किए गए संघर्षों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हैं।
5. प्रेरक और संघर्षशील:
ध्रुवस्वामिनी के संवाद प्रेरक और संघर्षशील होते हैं। वे न केवल ध्रुवस्वामिनी की प्रेरणा और साहस को दिखाते हैं, बल्कि पाठकों और दर्शकों को भी प्रेरित करते हैं। उसकी संवाद शैली में आत्म-निर्भरता, साहस और स्वतंत्रता की भावना झलकती है, जो उसके चरित्र की ताकत को दर्शाती है।
6. पारंपरिक और आधुनिकता का संगम:
ध्रुवस्वामिनी के संवाद पारंपरिकता और आधुनिकता का संगम हैं। वे उस काल के पारंपरिक दृष्टिकोण को भी दर्शाते हैं और साथ ही नारी की स्वतंत्रता और अधिकारों की आधुनिक धारणा को भी प्रस्तुत करते हैं। यह संवादों में सामंजस्य और संघर्ष की भावना को व्यक्त करते हैं।
निष्कर्ष
‘ध्रुवस्वामिनी’ के संवाद जयशंकर प्रसाद की नाटकीय दृष्टि और साहित्यिक कौशल को दर्शाते हैं। इन संवादों में भावनात्मक गहराई, ऐतिहासिक संदर्भ, साहित्यिक उत्कृष्टता, संघर्ष और विरोध की भावना, प्रेरणा, और पारंपरिक एवं आधुनिकता का संगम शामिल हैं। ये विशेषताएँ नाटक को जीवंत और प्रभावशाली बनाती हैं, और पाठकों और दर्शकों को गहरे विचार और आत्मनिरीक्षण की ओर प्रेरित करती हैं।
प्रश्न-9. ‘जीवनी’ विधा से क्या तात्पर्य है और इसकी रचना विधान में किन विशेषताओं का ध्यान रखना आवश्यक है ?
उत्तर:- जीवनी’ विधा: परिभाषा और रचना विधान
जीवनी किसी विशिष्ट व्यक्ति के जीवन और उसके अनुभवों का कालानुक्रमिक और तथ्यात्मक वर्णन है, जो किसी अन्य व्यक्ति द्वारा लिखा जाता है।
जीवनीकार उस व्यक्ति के जीवन के विभिन्न पहलुओं, जैसे कि उनके जन्म, परिवार, शिक्षा, करियर, उपलब्धियों, विफलताओं, व्यक्तिगत जीवन, और मृत्यु का विवरण प्रस्तुत करता है।
जीवनी का उद्देश्य उस व्यक्ति के जीवन और व्यक्तित्व को पाठकों के समक्ष एक सच्चे और निष्पक्ष रूप में प्रस्तुत करना होता है।
जीवनी साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा है, जो हमें प्रेरणा, शिक्षा, और मनोरंजन प्रदान करती है।
जीवनी रचना विधान की विशेषताएं:
- सत्यता और निष्पक्षता: जीवनी में प्रस्तुत सभी तथ्य सत्य और निष्पक्ष होने चाहिए। जीवनीकार को किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह या पक्षपात से बचना चाहिए।
- पूर्णता: जीवनी में उस व्यक्ति के जीवन के सभी महत्वपूर्ण पहलुओं का समावेश होना चाहिए।
- तथ्यात्मकता: जीवनी में प्रस्तुत सभी तथ्यों को प्रमाणों द्वारा समर्थित होना चाहिए।
- कालानुक्रमिकता: जीवनी में घटनाओं को उनके घटित होने के क्रम में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
- संतुलन: जीवनी में उपलब्धियों और विफलताओं, सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं, दोनों का ही उचित संतुलन होना चाहिए।
- पाठक की रुचि: जीवनी को रोचक और आकर्षक ढंग से लिखा जाना चाहिए ताकि पाठक उसमें रुचि रखें।
- भाषा: जीवनी की भाषा सरल, सहज और बोधगम्य होनी चाहिए।
जीवनी लिखने के लिए कुछ महत्वपूर्ण चरण:
- विषय का चयन: सबसे पहले, जीवनीकार को उस व्यक्ति का चयन करना होता है जिसकी जीवनी वह लिखना चाहता है।
- सामग्री का संग्रह: जीवनीकार को उस व्यक्ति के जीवन से संबंधित सभी महत्वपूर्ण जानकारी इकट्ठा करनी होती है।
- सामग्री का विश्लेषण: एक बार जब जीवनीकार को सभी जानकारी मिल जाती है, तो उसे उसका विश्लेषण करना होता है और यह तय करना होता है कि कौन सी जानकारी प्रासंगिक है और कौन सी नहीं।
- रूपरेखा तैयार करना: जीवनीकार को अपनी जीवनी के लिए एक रूपरेखा तैयार करनी होती है।
- प्रारंभिक मसौदा लिखना: जीवनीकार को अपनी जीवनी का एक प्रारंभिक मसौदा लिखना होता है।
- मसौदे का संशोधन: जीवनीकार को अपने मसौदे का कई बार संशोधन करना होता है जब तक कि वह उससे संतुष्ट न हो जाए।
- प्रकाशन: अंत में, जीवनीकार अपनी जीवनी को प्रकाशित करता है।
कुछ प्रसिद्ध जीवनीकार:
- प्रेमचंद
- माखनलाल चतुर्वेदी
- रामचंद्र गुप्त
- यशवंत राय
- नेमिचंद्र जैन
कुछ प्रसिद्ध जीवनी:
- “महात्मा गांधी” – रामचंद्र गुप्त
- “जवाहरलाल नेहरू” – सत्येंद्र नाथ राय
- “अब्दुल कलाम” – यशवंत राय
- “माँडू” – प्रेमचंद
- “निर्मला” – माखनलाल चतुर्वेदी
निष्कर्ष:
जीवनी एक महत्वपूर्ण साहित्यिक विधा है जो हमें प्रेरणा, शिक्षा, और मनोरंजन प्रदान करती है।
जीवनी रचना विधान में सत्यता, निष्पक्षता, पूर्णता, तथ्यात्मकता, कालानुक्रमिकता, संतुलन, पाठक की रुचि, और भाषा जैसे महत्वपूर्ण पहलुओं
प्रश्न-10. ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक की कथावस्तु का उल्लेख कीजिए ?
उत्तर:- ध्रुवस्वामिनी’ नाटक की कथावस्तु:
‘ध्रुवस्वामिनी’ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित एक प्रसिद्ध हिंदी नाटक है।
यह नाटक गुप्तकालीन सम्राट विक्रमादित्य के पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय के जीवन पर आधारित है।
कहानी राजकुमारी ध्रुवस्वामिनी के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अपनी सुंदरता और बुद्धिमत्ता के लिए जानी जाती है।
ध्रुवस्वामिनी का विवाह राजा रामगुप्त से होता है, जो चंद्रगुप्त द्वितीय के चचेरे भाई होते हैं।
लेकिन ध्रुवस्वामिनी को चंद्रगुप्त द्वितीय से प्यार हो जाता है, और वे गुप्त रूप से विवाह करते हैं।
जब राजा रामगुप्त को इस बारे में पता चलता है, तो वह क्रोधित हो जाता है और ध्रुवस्वामिनी को राक्षसों के साथ विवाह करने के लिए भेज देता है।
ध्रुवस्वामिनी राक्षसों के साथ रहने से इनकार कर देती है, और वह अपनी मृत्यु का इंतजार करती है।
लेकिन अंत में, चंद्रगुप्त द्वितीय ध्रुवस्वामिनी को बचा लेते हैं, और वे खुशी-खुशी रहने लगते हैं।
‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक में प्रेम, त्याग, बलिदान, और न्याय जैसे विषयों का चित्रण किया गया है।
यह नाटक स्त्री-शक्ति का भी एक प्रबल संदेश देता है।
ध्रुवस्वामिनी एक जटिल और बहुआयामी चरित्र है, जो अपनी इच्छाओं के लिए लड़ने और अपना भाग्य स्वयं निर्धारित करने के लिए तैयार है।
‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक हिंदी साहित्य के सबसे महत्वपूर्ण नाटकों में से एक है, और इसका मंचन आज भी किया जाता है।
नाटक के कुछ मुख्य पात्र:
- ध्रुवस्वामिनी: राजकुमारी, जो अपनी सुंदरता और बुद्धिमत्ता के लिए जानी जाती है
- चंद्रगुप्त द्वितीय: गुप्तकालीन सम्राट
- राजा रामगुप्त: चंद्रगुप्त द्वितीय के चचेरे भाई
- मंदाकिनी: ध्रुवस्वामिनी की सहेली
- पुरोहित: धार्मिक गुरु
- राक्षस: ध्रुवस्वामिनी को विवाह करने के लिए मजबूर करने वाले राक्षस
‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक की कुछ मुख्य विशेषताएं:
- कवितात्मक भाषा: प्रसाद जी ने इस नाटक में कवितात्मक भाषा का प्रयोग किया है, जो नाटक को एक विशेष रस प्रदान करता है।
- पात्रों का चरित्र चित्रण: नाटक के सभी पात्रों का चरित्र चित्रण बहुत ही प्रभावशाली है।
- विषयवस्तु: प्रेम, त्याग, बलिदान, और न्याय जैसे विषयों का चित्रण नाटक को प्रासंगिक और सार्थक बनाता है।
- संवाद: नाटक के संवाद बहुत ही प्रभावशाली और मार्मिक हैं।
- मंचन: नाटक का मंचन बहुत ही प्रभावशाली और रोमांचक है।
‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक एक उत्कृष्ट कृति है, जो हिंदी साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है
प्रश्न-11. हास्य और व्यंग्य रचना में अंतर स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर:- हास्य और व्यंग्य दोनों ही साहित्यिक विधाएं हैं जिनका उद्देश्य पाठकों को हंसाना होता है।
लेकिन दोनों के बीच कुछ महत्वपूर्ण अंतर भी हैं:
हास्य:
- उद्देश्य: हास्य का मुख्य उद्देश्य पाठकों को हंसाना और मनोरंजन करना होता है।
- विषयवस्तु: हास्य रचनाओं में हंसी-मजाक, चुटकुले, व्यंग्य, और मनोरंजक घटनाओं का वर्णन होता है।
- शैली: हास्य रचनाओं की शैली सरल, सहज और रोचक होती है।
- भाषा: हास्य रचनाओं में आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग होता है।
- प्रभाव: हास्य रचनाएं पाठकों को हंसाती हैं और उनमें खुशी और आनंद की भावना पैदा करती हैं।
उदाहरण:
- “हास्य रस” – रसिक लाल
- “गुब्बारे” – जयशंकर प्रसाद
- “तेरी बेटी मेरी बहू” – हरिश्चंद्र अखाड़े
व्यंग्य:
- उद्देश्य: व्यंग्य का मुख्य उद्देश्य किसी सामाजिक या राजनीतिक बुराई की आलोचना करना होता है।
- विषयवस्तु: व्यंग्य रचनाओं में सामाजिक कुरीतियों, राजनीतिक भ्रष्टाचार, और मानवीय कमजोरियों का चित्रण होता है।
- शैली: व्यंग्य रचनाओं की शैली व्यंग्यात्मक, आलोचनात्मक, और कटु होती है।
- भाषा: व्यंग्य रचनाओं में भाषा का प्रयोग बहुत ही सटीक और प्रभावशाली होता है।
- प्रभाव: व्यंग्य रचनाएं पाठकों को हंसाती हैं, लेकिन साथ ही उन्हें सोचने पर भी मजबूर करती हैं।
उदाहरण:
- “अंधेरे में” – जयशंकर प्रसाद
- “कर्मयोगी” – मुंशी प्रेमचंद
- “गबन” – प्रेमचंद
प्रश्न-12. “घीसा सच्चा गुरुभक्त है।” सोदाहरण सिद्ध कीजिए ?
उत्तर:- महादेवी वर्मा जी के रेखाचित्र “घीसा” में, घीसा एक अंधा और दरिद्र व्यक्ति है जो गुरु साहब के प्रति अटूट श्रद्धा रखता है। उसकी भक्ति न तो दिखावे की है और न ही किसी स्वार्थ से प्रेरित। वह गुरु साहब की हर बात मानता है और उनके प्रति पूर्ण समर्पण भाव रखता है।इस आधार पर, हम कह सकते हैं कि घीसा सच्चा गुरुभक्त है।
यहाँ कुछ उदाहरण दिए गए हैं जो घीसा की सच्ची भक्ति को दर्शाते हैं:
- पूर्ण समर्पण: जब गुरु साहब घीसा को गंगा स्नान के लिए भेजते हैं, तो वह बिना किसी प्रश्न या शिकायत के तुरंत ही चल पड़ता है।
- विश्वास: जब गुरु साहब घीसा को बताते हैं कि गंगा उसके पास आ जाएगी, तो घीसा बिना किसी संदेह के उनकी बात मान लेता है।
- धैर्य: जब गंगा नहीं आती है, तो घीसा हताश नहीं होता है और धैर्यपूर्वक इंतजार करता रहता है।
- कृतज्ञता: जब गंगा उसके पास आती है, तो घीसा गुरु साहब के प्रति कृतज्ञता से भर जाता है।
- निःस्वार्थ सेवा: घीसा गुरु साहब की सेवा करने में हमेशा तत्पर रहता है, चाहे वह कोई भी काम हो।
इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि घीसा की भक्ति गहरी और सच्ची है। वह गुरु साहब से केवल आशीर्वाद या मुक्ति की अपेक्षा नहीं करता है, बल्कि उनकी सेवा करने में ही आनंद महसूस करता है। इस प्रकार, घीसा “घीसा” रेखाचित्र का एक प्रेरणादायक चरित्र है जो हमें सच्ची भक्ति का अर्थ समझाता है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि “घीसा” एक काल्पनिक चरित्र है। हालांकि, यह चरित्र हमें सिखाता है कि सच्ची भक्ति क्या होती है और हम अपने जीवन में इसका अभ्यास कैसे कर सकते हैं।
प्रश्न-13. ‘महाभारत की एक साँझ’ एकांकी के आधार पर युधिष्ठिर का चरित्र-चित्रण कीजिए ?
उत्तर:-
प्रश्न-14. आलोचना का अर्थ एवं स्वरूप स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर:-
प्रश्न-15.. नाटक एवं एकांकी में तात्विक अंतर सोदाहरण स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर:- नाटक और एकांकी दोनों ही नाट्य विधाएं हैं, जिनमें अभिनेताओं द्वारा कहानियों का मंचन किया जाता है। लेकिन इन दोनों विधाओं के बीच कुछ महत्वपूर्ण अंतर भी हैं:-
1. आकार:
- नाटक: नाटक आकार में बड़ा होता है, इसमें अनेक अंक और दृश्य होते हैं।
- एकांकी: एकांकी आकार में छोटा होता है, इसमें केवल एक अंक और एक दृश्य होता है।
2. कथानक:
- नाटक: नाटक में जटिल कथानक होता है, जिसमें अनेक घटनाएं और पात्र होते हैं।
- एकांकी: एकांकी में सरल कथानक होता है, जिसमें कम घटनाएं और पात्र होते हैं।
3. संघर्ष:
- नाटक: नाटक में एक मुख्य संघर्ष होता है, जिसके आसपास पूरी कहानी घूमती है।
- एकांकी: एकांकी में एक या दो संघर्ष होते हैं, जो अपेक्षाकृत सरल होते हैं।
4. चरित्र चित्रण:
- नाटक: नाटक में अनेक पात्र होते हैं, जिनका चरित्र चित्रण विस्तृत रूप से किया जाता है।
- एकांकी: एकांकी में कम पात्र होते हैं, जिनका चरित्र चित्रण संक्षिप्त और प्रभावशाली होता है।
5. विषयवस्तु:
- नाटक: नाटक में विविध विषयों का चित्रण किया जा सकता है, जैसे कि सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, या दार्शनिक।
- एकांकी: एकांकी में आमतौर पर किसी एक विषय का चित्रण किया जाता है, जो सामाजिक या मानवीय जीवन से संबंधित होता है।
6. उद्देश्य:
- नाटक: नाटक का उद्देश्य दर्शकों का मनोरंजन करना, उन्हें शिक्षित करना, और सामाजिक परिवर्तन लाना हो सकता है।
- एकांकी: एकांकी का उद्देश्य दर्शकों को किसी एक विचार या भावना से प्रभावित करना होता है।
उदाहरण:
- नाटक: “महावीर चरित” – जयशंकर प्रसाद
- एकांकी: “सूरजमुखी” – रवीन्द्रनाथ टैगोर
निष्कर्ष:
नाटक और एकांकी दोनों ही मनोरंजक और प्रभावशाली नाट्य विधाएं हैं। इन दोनों विधाओं में कुछ तात्विक अंतर होते हैं, जो इनकी रचना और मंचन को प्रभावित करते हैं। नाटक बड़े पैमाने पर कहानियां कहने के लिए उपयुक्त है, जबकि एकांकी छोटे और प्रभावशाली संदेश देने के लिए उपयुक्त है।
प्रश्न- मेरा बचपन’ में अभिव्यक्त लेखक के विचारों को स्पष्ट कीजिए
उत्तर:-
प्रश्न- a निम्नलिखित की सप्रसंग व्याख्या कीजिए:
“तीनों तरफ क्षितिज तक पानी ही पानी था, फिर भी सामने का क्षितिज, हिन्द महासागर की अपेक्षा अधिक दूर और अधिक गहरा जान पड़ता था। लगता था कि उस ओर दूसरा छोर है ही नहीं। तीनों ओर के क्षितिज को आँखों में समेटता मैं कुछ देर भूला रहा कि मैं मैं हूँ एक जीवित व्यक्ति, दूर से आया यात्री
एक दर्शक।”
उत्तर:-
प्रश्न- b निम्नलिखित की सप्रसंग व्याख्या कीजिए:
“धर्मराज ने कहा, यह समस्या तो कभी की हल हो गई। नरक में पिछले सालों से बड़े गुणी कारीगर आ गये हैं। कई इमारतों के ठेकेदार हैं। जिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनाईं। बड़े-बड़े इंजीनियर भी आ गये हैं। जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया। ओवरसियर हैं, जिन्होंने उन मजदूरों की हाजिरी भरकर पैसा हड़पा जो कभी काम पर गए ही नहीं। इन्होंने बहुत जल्दी नरक में कई इमारतें तान दी हैं।”
उत्तर:-
प्रश्न- c निम्नलिखित की सप्रसंग व्याख्या कीजिए:
“तुलसी हमारे जागरण के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उनकी कविता की आधारशिला जनता की एकता है। मिथिला से लेकर अवध और बज तक चार सौ साल से तुलसी की सरस वाणी नगरों और गाँवों में गूँजती है। साम्राज्यवादी सामंती अवशेष और बड़े पूँजीपतियों के शोषण से हिन्दी भाषी जनता को मुक्त करके उसकी जातीय संस्कृति को विकसित करना है, हमारे जातीय संगठन के मार्ग में साम्प्रदायिकता, ऊँच-नीच के भेदभाव, नारी के प्रति सामंती शासक का रुख आदि अनेक बाधाएँ हैं। तुलसी का साहित्य हमें इनसे संघर्ष करना सिखाता है।”
उत्तर:-
प्रश्न- d निम्नलिखित की सप्रसंग व्याख्या कीजिए:
“कर्म को आनन्द अनुभव करने वालों ही का नाम कर्मण्य है। धर्म और उदारता के उच्च कामों के विधान में ही एक ऐसा दिव्य आनन्द भरा रहता है कि कर्ता का वे कर्म ही के फलस्वरूप लगते हैं। अत्याचार का दामन और क्लेश का शमन करते हुए चित्त में जो उल्लास और तुष्टि होती है, वही लोकोपकारी कर्मवीर का सच्चा सुख है। उनके लिए सुख तब तक के लिए रुका नहीं रहता जब तक कि फल प्राप्त ने हो जाए बल्कि उस समय से थोड़ा-थोड़ा करके मिलने लगता है, जब से वह कर्म की ओर
हाथ बढ़ाता है।”
उत्तर:-
Section-C
प्रश्न-1. व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक लेख लिखिए ?
उत्तर:- 22 अगस्त 1924 को जन्मे परसाई जी ने अपने व्यंग्यात्मक लेखन के माध्यम से समाज की रूढ़ियों, कुरीतियों और ढोंग पर तीखी टिप्पणी करते हुए लोगों को हंसाने के साथ-साथ सोचने पर भी मजबूर कर दिया।
व्यक्तित्व:
परसाई जी सरल, सहज और विनम्र व्यक्तित्व के धनी थे। वे हमेशा सच बोलने और अपनी बात बेबाकी से कहने के लिए जाने जाते थे। उनमें हास्य रस कूट-कूट कर भरा था, जिसे वे अपने लेखन में बखूबी उतारते थे।
कृतित्व:
परसाई जी ने अनेक कहानियां, व्यंग्य, निबंध और उपन्यास लिखे। उनकी रचनाओं में ‘टेढ़े-मेढ़े रास्ते’, ‘पंचतंत्र’, ‘विक्रमादित्य के वीर वचन’, ‘सोऽहम’, ‘कर्मवीर’, ‘बेकारी का दौर’, ‘शिवजी का लिंग’, ‘दुनिया कैसी है’ आदि प्रमुख हैं।
विशेषताएं:
- सरल भाषा: परसाई जी ने अपनी रचनाओं में सरल और सहज भाषा का प्रयोग किया, जिससे उनकी रचनाएं आम जनता तक आसानी से पहुंच सकीं।
- तीक्ष्ण व्यंग्य: परसाई जी का व्यंग्य तीक्ष्ण और कटाक्षपूर्ण होता था, लेकिन कभी भी अपमानजनक या द्वेषपूर्ण नहीं था।
- हास्य रस: परसाई जी की रचनाओं में हास्य रस भरपूर होता था, जो पाठकों को हंसाने के साथ-साथ सोचने पर भी मजबूर कर देता था।
- सामाजिक चेतना: परसाई जी की रचनाओं में सामाजिक चेतना स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज की बुराइयों पर प्रकाश डाला और लोगों को उनसे मुक्त होने के लिए प्रेरित किया।
प्रभाव:
परसाई जी के लेखन का हिंदी साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने व्यंग्य लेखन को एक नया आयाम दिया और हिंदी साहित्य में इसका महत्व स्थापित किया। आज भी वे व्यंग्य लेखन के प्रेरणा स्त्रोत हैं।
(जिस भी प्रश्न का उत्तर देखना हैं उस पर क्लिक करे)
प्रश्न-2. ध्रुवस्वामिनी’ नाटक की भाषा-शैली की विस्तृत विवेचना कीजिए ?
उत्तर:- ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक की भाषा-शैली की विस्तृत विवेचना:
भाषा:
‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक की भाषा संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली है। प्रसाद जी ने भाषा का प्रयोग अत्यंत कुशलतापूर्वक किया है। भाषा सरल, सहज और प्रभावशाली है। इसमें तत्सम शब्दों की प्रचुरता है, लेकिन भाषा कठिन या बोझिल नहीं लगती। प्रसाद जी ने भाषा में उचित शब्दों का चयन कर उसे प्रवाहपूर्ण और अर्थपूर्ण बना दिया है।
शैली:
‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक की शैली नाट्यमय और प्रभावशाली है। प्रसाद जी ने नाटक में विभिन्न प्रकार के शैलीगत तत्वों का प्रयोग किया है, जैसे:
- संवाद: नाटक के संवाद स्वाभाविक, सटीक और प्रभावशाली हैं। पात्र अपनी-अपनी भाषा और शैली में बोलते हैं, जिससे नाटक में जीवंतता आ जाती है।
- वर्णन: प्रसाद जी ने नाटक में प्रकृति, वातावरण और पात्रों का सजीव चित्रण किया है। उनके वर्णन चित्रात्मक और प्रभावशाली हैं।
- गीत: नाटक में कुछ गीत भी हैं, जो नाटक की भावनाओं को और भी अधिक उभारते हैं।
विशेषताएं:
संस्कृतनिष्ठ भाषा: ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक की भाषा संस्कृतनिष्ठ है। इसमें तत्सम शब्दों की प्रचुरता है, लेकिन भाषा कठिन या बोझिल नहीं लगती। प्रसाद जी ने भाषा में उचित शब्दों का चयन कर उसे प्रवाहपूर्ण और अर्थपूर्ण बना दिया है।
साहित्यिक भाषा: ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक की भाषा अत्यंत साहित्यिक है। इसमें अलंकारों, मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग कुशलतापूर्वक किया गया है।
भावपूर्ण भाषा: प्रसाद जी ने भाषा का प्रयोग भावनाओं को व्यक्त करने के लिए भी किया है। नाटक में प्रेम, वीरता, करुणा, क्रोध आदि विभिन्न भावनाओं को भाषा के माध्यम से प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया गया है।
प्रश्न-3 . ‘मेरा बचपन’ आत्मकथांश में अभिव्यक्त लेखक के विचारों को स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर:-
प्रश्न-4. हिन्दी साहित्य के नाटक एवं अन्य विविध गद्य विधाओं पर एक लेख लिखिए ?
उत्तर:- हिन्दी साहित्य के नाटक एवं अन्य विविध गद्य विधाएँ
हिन्दी साहित्य में गद्य विधाओं का विशेष महत्व है, जो साहित्य को विविधता और गहराई प्रदान करती हैं। नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध, रेखाचित्र, आत्मकथा, जीवनी आदि गद्य की प्रमुख विधाएँ हैं। इन विधाओं ने न केवल साहित्यिक धारा को समृद्ध किया है, बल्कि समाज को भी गहराई से प्रभावित किया है। यहाँ हिन्दी साहित्य की कुछ प्रमुख गद्य विधाओं पर एक दृष्टि डाली जा रही है:
1. नाटक
हिन्दी नाटक विधा ने साहित्यिक और सांस्कृतिक धारा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिन्दी नाटक के जनक माना जाता है। उनके नाटक ‘अंधेर नगरी’, ‘भारत दुर्दशा’ आदि सामाजिक और राजनीतिक चेतना को जाग्रत करते हैं। जयशंकर प्रसाद के नाटकों जैसे ‘ध्रुवस्वामिनी’, ‘चंद्रगुप्त’ आदि ने ऐतिहासिक और पौराणिक कथाओं को जीवंत किया। मोहन राकेश के नाटक ‘आधे अधूरे’ और ‘आषाढ़ का एक दिन’ आधुनिक हिन्दी नाटक के महत्वपूर्ण उदाहरण हैं, जिन्होंने मध्यवर्गीय जीवन की जटिलताओं को दर्शाया।
2. उपन्यास
हिन्दी उपन्यास साहित्य में विविधता और गहराई प्रदान करता है। प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’, ‘गबन’, ‘निर्मला’ आदि ने समाज की समस्याओं और ग्रामीण जीवन की सच्चाई को उकेरा। अज्ञेय के ‘शेखर: एक जीवनी’ और यशपाल के ‘झूठा सच’ ने आजादी के बाद के समाज की जटिलताओं को प्रस्तुत किया। भीष्म साहनी के ‘तमस’ ने विभाजन की त्रासदी को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया।
3. कहानी
कहानी विधा में भी हिन्दी साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान है। प्रेमचंद की कहानियाँ जैसे ‘पंच परमेश्वर’, ‘ईदगाह’ आदि ने ग्रामीण जीवन और मानवीय संवेदनाओं को प्रस्तुत किया। मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, और उदय प्रकाश जैसे लेखकों ने आधुनिक जीवन की जटिलताओं और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को कहानियों में उकेरा।
4. निबंध
हिन्दी निबंध विधा में विविधता और गहराई दोनों देखने को मिलती हैं। महादेवी वर्मा के निबंध ‘अतीत के चलचित्र’, ‘पथ के साथी’ आदि साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं। रामचंद्र शुक्ल के निबंध साहित्यिक आलोचना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।
5. रेखाचित्र
रेखाचित्र विधा में व्यक्ति या घटना का चित्रण किया जाता है। रामधारी सिंह दिनकर, सुदर्शन, और निराला जैसे साहित्यकारों ने इस विधा में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके रेखाचित्र समाज की विभिन्न समस्याओं और विशेषताओं को उजागर करते हैं।
6. आत्मकथा
आत्मकथा विधा में व्यक्ति अपने जीवन के अनुभवों और संघर्षों का वर्णन करता है। महात्मा गांधी की ‘सत्य के प्रयोग’, जयशंकर प्रसाद की ‘कंकाल’ और ‘तितली’ जैसी कृतियाँ आत्मकथा और आत्मचिंतन की श्रेणी में आती हैं।
7. जीवनी
जीवनी विधा में किसी व्यक्ति के जीवन की घटनाओं का वर्णन होता है। रामचंद्र तिवारी द्वारा लिखित ‘पंतजी की जीवनी’, अमृतराय की ‘प्रेमचंद: कलम का सिपाही’ और निर्मल वर्मा की ‘अज्ञेय की जीवनी’ महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं।
निष्कर्ष
हिन्दी साहित्य की गद्य विधाओं ने समाज, संस्कृति और साहित्य को गहराई से प्रभावित किया है। नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध, रेखाचित्र, आत्मकथा और जीवनी जैसी विधाओं ने न केवल साहित्य को समृद्ध किया है, बल्कि समाज के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया है। इन विधाओं के माध्यम से साहित्यकारों ने मानवीय संवेदनाओं, सामाजिक समस्याओं, और सांस्कृतिक मूल्यों को प्रस्तुत किया है, जो हिन्दी साहित्य की गहनता और व्यापकता को दर्शाता है।
प्रश्न-5. आलोचना का स्वरूप स्पष्ट करते हुए आलोचना के प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:- आलोचना का स्वरूप और प्रकार:
आलोचना किसी वस्तु, विचार, या कृति का मूल्यांकन करने की प्रक्रिया है। इसमें वस्तु, विचार, या कृति की अच्छाइयों और बुराइयों का विश्लेषण किया जाता है, और उसके गुण-दोषों का विवेचन किया जाता है। आलोचना का उद्देश्य किसी वस्तु, विचार, या कृति को बेहतर ढंग से समझना और उसका मूल्य निर्धारित करना होता है।
आलोचना का स्वरूप:
- विश्लेषणात्मक: आलोचना में किसी वस्तु, विचार, या कृति का गहन विश्लेषण किया जाता है। उसके विभिन्न पहलुओं पर विचार किया जाता है और उसके विभिन्न घटकों का अध्ययन किया जाता है।
- तार्किक: आलोचना तर्कसंगत और निष्पक्ष होनी चाहिए। आलोचक को अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों और भावनाओं से प्रभावित हुए बिना, वस्तु, विचार, या कृति का मूल्यांकन करना चाहिए।
- व्याख्यात्मक: आलोचना में किसी वस्तु, विचार, या कृति का अर्थ स्पष्ट किया जाता है। आलोचक को पाठक को यह समझने में मदद करनी चाहिए कि लेखक या रचनाकार क्या कहना चाहता है।
- मूल्यांकन: आलोचना में किसी वस्तु, विचार, या कृति का मूल्य निर्धारित किया जाता है। आलोचक को यह बताना चाहिए कि वह वस्तु, विचार, या कृति कितनी अच्छी या बुरी है।
आलोचना के प्रकार:
आलोचना के कई प्रकार हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं:
- साहित्यिक आलोचना: यह साहित्यिक कृतियों, जैसे कि उपन्यास, कहानियां, कविताएं, और नाटक, का मूल्यांकन करती है।
- कला आलोचना: यह कलाकृतियों, जैसे कि चित्रों, मूर्तियों, और स्थापत्य कला, का मूल्यांकन करती है।
- संगीत आलोचना: यह संगीत रचनाओं और प्रदर्शनों का मूल्यांकन करती है।
- फिल्म आलोचना: यह फिल्मों का मूल्यांकन करती है।
- नाट्य आलोचना: यह नाट्य प्रदर्शनों का मूल्यांकन करती है।
- सामाजिक आलोचना: यह सामाजिक मुद्दों और समस्याओं का मूल्यांकन करती है।
- राजनीतिक आलोचना: यह राजनीतिक विचारों और नीतियों का मूल्यांकन करती है।
- दार्शनिक आलोचना: यह दार्शनिक विचारों और सिद्धांतों का मूल्यांकन करती है।
निष्कर्ष:
आलोचना एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जो हमें किसी वस्तु, विचार, या कृति को बेहतर ढंग से समझने में मदद करती है। यह हमें सृजनात्मक सोचने और अपने विचारों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में भी मदद करती है।
प्रश्न-6. ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक में भारतीय नारी की स्थिति का दिग्दर्शन उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर:- ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक में भारतीय नारी की स्थिति
जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक भारतीय नारी की स्थिति और उसके संघर्षों का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करता है। इस नाटक में ध्रुवस्वामिनी के चरित्र के माध्यम से तत्कालीन समाज में स्त्रियों की दशा और उनके अधिकारों पर प्रकाश डाला गया है। ध्रुवस्वामिनी का संघर्ष, उसकी स्वतंत्रता की चाह और उसके आत्मसम्मान की रक्षा के प्रयास, नाटक के मुख्य प्रतिपाद्य हैं।
1. ध्रुवस्वामिनी का चरित्र:
ध्रुवस्वामिनी एक आत्मसम्मानित, साहसी और स्वतंत्र सोच वाली नारी है। उसका विवाह एक ऐसे राजा से होता है जो उसे केवल एक वस्तु के रूप में देखता है। ध्रुवस्वामिनी इस स्थिति को स्वीकार नहीं करती और अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए संघर्ष करती है। वह समाज के नियमों और परंपराओं को चुनौती देती है, जो महिलाओं को सीमित और दासता में रखने का प्रयास करती हैं।
2. स्त्री का आत्मसम्मान:
ध्रुवस्वामिनी का आत्मसम्मान नाटक की मुख्य थीम है। वह स्पष्ट रूप से कहती है कि वह किसी की संपत्ति नहीं है और अपने आत्मसम्मान के साथ किसी भी प्रकार का समझौता नहीं करेगी। यह उस समय की सामाजिक स्थिति को दर्शाता है, जहाँ स्त्रियों को पुरुषों की संपत्ति के रूप में देखा जाता था। ध्रुवस्वामिनी का आत्मसम्मान और साहस भारतीय नारी की शक्ति और उसकी स्वतंत्रता की आकांक्षा का प्रतीक है।
3. समाज और परंपराओं का विरोध:
नाटक में ध्रुवस्वामिनी के संघर्ष को दिखाया गया है कि कैसे वह समाज और परंपराओं के खिलाफ खड़ी होती है। वह न केवल अपने पति के अन्यायपूर्ण व्यवहार का विरोध करती है, बल्कि समाज की उन मान्यताओं को भी चुनौती देती है जो स्त्रियों को स्वतंत्रता और अधिकारों से वंचित करती हैं। ध्रुवस्वामिनी का यह विरोध उस समय की सामाजिक स्थिति को उजागर करता है, जहाँ स्त्रियाँ पुरुषों के अधीन मानी जाती थीं।
4. स्वतंत्रता और अधिकार:
ध्रुवस्वामिनी का चरित्र यह भी दिखाता है कि स्त्रियाँ अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर सकती हैं और उन्हें यह अधिकार मिलना चाहिए। ध्रुवस्वामिनी अपने अधिकारों की रक्षा के लिए हर संभव प्रयास करती है और यह संदेश देती है कि स्त्रियाँ भी समाज में समान अधिकारों की अधिकारी हैं।
उदाहरण
- पति द्वारा उत्पीड़न: ध्रुवस्वामिनी का पति उसे केवल अपनी इच्छाओं की पूर्ति का साधन मानता है। वह उसे सम्मान और अधिकार नहीं देता, जिससे ध्रुवस्वामिनी का आत्मसम्मान आहत होता है। ध्रुवस्वामिनी इस अत्याचार के खिलाफ खड़ी होती है और अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए संघर्ष करती है।
- समाज की दृष्टि: ध्रुवस्वामिनी समाज द्वारा बनाए गए नियमों और परंपराओं का विरोध करती है। वह स्पष्ट करती है कि वह किसी की संपत्ति नहीं है और समाज की दृष्टि में भी उसका सम्मान होना चाहिए। यह उस समय की सामाजिक स्थिति को दर्शाता है, जहाँ स्त्रियाँ समाज के बनाए हुए नियमों में बंधी रहती थीं।
निष्कर्ष
‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक भारतीय नारी की स्थिति, उसके संघर्ष और आत्मसम्मान की रक्षा के प्रयासों का सजीव चित्रण करता है। ध्रुवस्वामिनी का चरित्र साहसी, आत्मसम्मानित और स्वतंत्रता की चाह रखने वाली नारी का प्रतीक है। इस नाटक के माध्यम से जयशंकर प्रसाद ने समाज में नारी की स्थिति को सुधारने और उसे समान अधिकार देने का संदेश दिया है। ध्रुवस्वामिनी का संघर्ष और साहस भारतीय नारी की शक्ति और उसकी स्वतंत्रता की आकांक्षा को दर्शाता है।
प्रश्न-7 निम्नलिखित में से किन्हीं दो पर टिप्पणियाँ लिखिए
नाटक में संवादों का महत्व
उत्तर:- नाटक में संवाद अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे नाटक के विभिन्न तत्वों को एक साथ जोड़ने और दर्शकों तक कहानी पहुंचाने का काम करते हैं। संवादों के माध्यम से पात्रों के विचार, भावनाएं, और व्यक्तित्व प्रकट होते हैं। वे नाटक के कथानक को आगे बढ़ाने, संघर्ष पैदा करने, और तनाव उत्पन्न करने में भी मदद करते हैं।
नाटक में संवादों के कुछ महत्वपूर्ण कार्य निम्नलिखित हैं:
मनोरंजन प्रदान करना: संवादों के माध्यम से दर्शकों का मनोरंजन किया जाता है। पात्र चुटकुले सुनाते हैं, मजाक करते हैं, और हंसी-मजाक करते हैं। इससे नाटक का माहौल हल्का-फुल्का और मनोरंजक बन जाता है।
कथानक को आगे बढ़ाना: संवादों के माध्यम से नाटक की कहानी आगे बढ़ती है। पात्र एक-दूसरे से बातचीत करके घटनाओं को गति प्रदान करते हैं और दर्शकों को कहानी में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं।
पात्रों का विकास: संवादों के माध्यम से पात्रों के विचार, भावनाएं, और व्यक्तित्व प्रकट होते हैं। दर्शक पात्रों की बातचीत सुनकर उनके बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं और उनसे जुड़ाव महसूस करते हैं।
संघर्ष पैदा करना: संवादों के माध्यम से नाटक में संघर्ष पैदा किया जाता है। पात्र एक-दूसरे से मतभेद रखते हैं, बहस करते हैं, और झगड़ते हैं। यह संघर्ष नाटक को रोचक बनाता है और दर्शकों का ध्यान आकर्षित करता है।
तनाव उत्पन्न करना: संवादों के माध्यम से नाटक में तनाव उत्पन्न किया जाता है। पात्रों को खतरा महसूस होता है, वे चिंतित रहते हैं, और उन्हें निर्णय लेने होते हैं। यह तनाव दर्शकों को उत्साहित करता है और उन्हें नाटक के अंत तक बांधे रखता है।
विषय-वस्तु को स्पष्ट करना: संवादों के माध्यम से नाटक की विषय-वस्तु को स्पष्ट किया जाता है। पात्र विभिन्न मुद्दों पर बातचीत करते हैं और अपनी राय व्यक्त करते हैं। इससे दर्शकों को नाटक के संदेश को समझने में मदद मिलती है।
संस्मरण और यात्रावृत्त में अन्तर
उत्तर:- स्मरण और यात्रावृत्त दोनों ही गद्य विधाएं हैं, जिनमें लेखक अपने व्यक्तिगत अनुभवों का वर्णन करता है।
लेकिन, इन दोनों विधाओं में कुछ महत्वपूर्ण अंतर भी हैं:
विषय:
- संस्मरण: संस्मरण में लेखक अपने जीवन की किसी विशेष घटना या अनुभव का वर्णन करता है। यह घटना लेखक के लिए भावनात्मक रूप से महत्वपूर्ण हो सकती है, और इस पर लेखक का गहरा प्रभाव पड़ा हो सकता है।
- यात्रावृत्त: यात्रावृत्त में लेखक किसी विशेष स्थान की यात्रा का वर्णन करता है। लेखक उस स्थान के बारे में जानकारी देता है, वहां के लोगों से अपनी मुलाकातों का वर्णन करता है, और अपनी यात्रा के दौरान हुए अनुभवों को साझा करता है।
शैली:
- संस्मरण: संस्मरण आमतौर पर अधिक भावुक और व्यक्तिगत होता है। लेखक अपनी भावनाओं और विचारों को खुलकर व्यक्त करता है। भाषा सरल और सहज होती है।
- यात्रावृत्त: यात्रावृत्त आमतौर पर अधिक वस्तुनिष्ठ और तथ्यात्मक होता है। लेखक स्थान का वर्णन तथ्यों और आंकड़ों के आधार पर करता है। भाषा अधिक औपचारिक और वर्णनात्मक होती है।
उद्देश्य:
- संस्मरण: संस्मरण का उद्देश्य पाठक को लेखक के अनुभवों से अवगत कराना और उनमें भावनाओं को जगाना होता है। लेखक चाहता है कि पाठक उसके साथ जुड़ाव महसूस करें और उसकी भावनाओं को समझें।
- यात्रावृत्त: यात्रावृत्त का उद्देश्य पाठक को किसी विशेष स्थान के बारे में जानकारी देना होता है। लेखक चाहता है कि पाठक उस स्थान के बारे में जानें, वहां की संस्कृति और लोगों को समझें, और यात्रा करने के लिए प्रेरित हों।
उदाहरण:
यात्रावृत्त: राहुल संकृत्यायन का “विश्व-परिक्रमा”, महात्मा गांधी का “दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह”, और अमृता प्रीतम का “पिंजरे के अंदर”
संस्मरण: प्रेमचंद का “बूढ़ी काकी”, शिवानी का “कच्चे आम”, और जयशंकर प्रसाद का “आँसू”
आत्मकथा और जीवनी में अन्तर
उत्तर:-
अंतर | आत्मकथा | जीवनी |
---|---|---|
1. लेखक | आत्मकथा वह लेख है जिसे स्वयं व्यक्ति अपने जीवन की घटनाओं, अनुभवों और विचारों को व्यक्त करते हुए लिखता है। इसमें लेखक अपने जीवन के बारे में स्वयं वर्णन करता है। | जीवनी वह लेख है जिसे किसी अन्य व्यक्ति द्वारा लिखा जाता है। इसमें लेखक किसी दूसरे व्यक्ति के जीवन की घटनाओं और अनुभवों का वर्णन करता है। |
2. दृष्टिकोण | आत्मकथा प्रथम पुरुष में लिखी जाती है, अर्थात “मैं” का उपयोग किया जाता है। यह लेखक के व्यक्तिगत दृष्टिकोण और अनुभवों को प्रस्तुत करती है। | जीवनी तृतीय पुरुष में लिखी जाती है, अर्थात “वह” या “उन्होंने” का उपयोग किया जाता है। यह बाहरी दृष्टिकोण से लिखी जाती है और अधिक वस्तुनिष्ठ होती है। |
3.विवरण | आत्मकथा में लेखक अपने जीवन की घटनाओं, संघर्षों, सफलताओं और असफलताओं को विस्तृत रूप में वर्णित करता है। इसमें लेखक की भावनाएँ, विचार और अनुभव प्रमुख होते हैं। | जीवनी में लेखक उस व्यक्ति के जीवन की घटनाओं, उपलब्धियों, संघर्षों और महत्वपूर्ण क्षणों का विवरण प्रस्तुत करता है। इसमें तथ्यों और घटनाओं का सजीव चित्रण होता है। |
4. उद्देश्य | आत्मकथा का उद्देश्य स्वयं की जीवन यात्रा को प्रस्तुत करना और पाठकों को अपने अनुभवों से अवगत कराना होता है। यह आत्मविश्लेषण और आत्मनिरीक्षण का माध्यम होती है। | जीवनी का उद्देश्य उस व्यक्ति के जीवन और कार्यों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना होता है। यह उस व्यक्ति के योगदान और महत्व को उजागर करती है। |
5. उदाहरण | ‘सत्य के प्रयोग’ – महात्मा गांधी: इस पुस्तक में महात्मा गांधी ने अपने जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं और अनुभवों को स्वयं के दृष्टिकोण से वर्णित किया है। | ‘प्रेमचंद: कलम का सिपाही’ – अमृतराय: यह पुस्तक प्रेमचंद की जीवनी है, जिसमें अमृतराय ने प्रेमचंद के जीवन, उनके संघर्षों और साहित्यिक योगदान का विस्तृत वर्णन किया है। |
आचार्य हजारी प्रसाद के निबन्ध
उत्तर:- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य के एक महान निबंधकार, आलोचक और साहित्यकार थे। उनके निबंध साहित्यिक गहराई, विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण और व्यापक विषयों की समझ के लिए जाने जाते हैं। आचार्य द्विवेदी के निबंधों में भारतीय संस्कृति, साहित्य, इतिहास, समाज और दर्शन पर विस्तृत विचार-विमर्श मिलता है। उनके निबंधों की कुछ प्रमुख विशेषताएँ और उदाहरण नीचे दिए गए हैं:
प्रमुख निबंध
- ‘अशोक के फूल’: इस निबंध संग्रह में विभिन्न निबंध शामिल हैं, जिनमें भारतीय संस्कृति, साहित्य, और समाज की विभिन्न विषयों पर विचार किया गया है। द्विवेदी जी ने अपने विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से इन विषयों को गहराई से समझाया है।
- ‘कुटज’: यह संग्रह भी उनके महत्वपूर्ण निबंधों में से एक है। इसमें उन्होंने सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक विषयों पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। ‘कुटज’ में द्विवेदी जी के विचारों की गहराई और साहित्यिक दृष्टिकोण की उत्कृष्टता देखने को मिलती है।
- ‘कल्पलता’: यह निबंध संग्रह साहित्यिक आलोचना और विश्लेषण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण है। इसमें आचार्य द्विवेदी ने भारतीय साहित्य की विभिन्न विधाओं और उनकी विशेषताओं पर विस्तार से विचार किया है।
- ‘हिन्दी साहित्य: उद्भव और विकास’: इस निबंध में द्विवेदी जी ने हिन्दी साहित्य के प्रारंभ से लेकर आधुनिक काल तक के विकास का विशद वर्णन किया है। इसमें उन्होंने हिन्दी साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों, लेखकों और उनकी कृतियों पर विस्तृत चर्चा की है।
- ‘साहित्य का उद्देश्य’: इस निबंध में आचार्य द्विवेदी ने साहित्य के उद्देश्य और उसकी उपयोगिता पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने साहित्य को समाज का दर्पण बताया है और इसकी महत्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डाला है।
निबंधों की विशेषताएँ
सांस्कृतिक दृष्टिकोण: उनके निबंधों में भारतीय संस्कृति और उसकी महानता के प्रति गहरा प्रेम और आदर झलकता है। वे भारतीय संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को गहराई से समझते और उनकी विशेषताओं को उजागर करते हैं।
विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण: आचार्य द्विवेदी के निबंधों में विषयों का गहन विश्लेषण होता है। वे किसी भी विषय को केवल सतही रूप से नहीं देखते, बल्कि उसकी गहराई में जाकर उसके विभिन्न पहलुओं का विवेचन करते हैं।
भाषा और शैली: उनकी भाषा सरल, स्पष्ट और प्रभावी होती है। वे अपने विचारों को स्पष्ट और सजीव ढंग से प्रस्तुत करते हैं, जिससे पाठक आसानी से समझ सके। उनकी शैली में साहित्यिक सौंदर्य और वैचारिक गहराई का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है।
विविधता: आचार्य द्विवेदी के निबंधों के विषय बहुत व्यापक और विविध होते हैं। वे साहित्य, संस्कृति, समाज, इतिहास, और दर्शन जैसे विभिन्न विषयों पर लिखते हैं और हर विषय को नई दृष्टि से देखने का प्रयास करते हैं।
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